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________________ 150] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संजो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के उत्पाद-परिमारणादि वीस द्वारों को प्ररूपरणा 21. पज्जत्तसंखेज्जवासाउय० जाव तिरिक्खजोगिए णं भंते ! जे भविए महेसत्तमपुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं बावीससागरोवमट्टितीए, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [81 प्र. भगवन ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-पचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, जो सप्तमनरकपृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [81 उ.] गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 82. ते णं भंते ! जीवा० ? एवं जहेव रयणप्पभाए णव गमका, लद्धी वि स च्चेव; णवरं वइरोसभनारायसंघयणी, इस्थिवेदगा न उववज्जति / सेसं तं चेव जाव अणुबंधो ति। संवेहो भवाएसेणं जहन्नेणं तिणि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावटि सागरोक्माई चाँह पुन्यकोडीहि अमहियाई; एवतियं नाव करेज्जा 1 / [सु० 81-82 पढमो गमओ]। [82 प्र.| भगवन ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [82 उ.] गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के समान इसके भी नौ गमक और अन्य सब वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि वहाँ वज्रऋषभनाराचसंहनन वाला ही उत्पन्न होता है, स्त्री वेद वाले जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होते। शेष समग्र कथन यावत् अनुबन्ध तक पूर्वोक्त जानना चाहिए | संवेध--भव की सपेक्षा से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव तथा काल की अपेक्षा से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त अधिक वाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है / [81-82 प्रथम गमक] 83. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, स च्चेव वत्तव्वया जाव भवादेसो त्ति / कालाएसेणं महन्नेणं० कालादेसो वि तहेव जाव चरहिं पुन्वकोडीहि अम्भहियाई; एवतियं जाव करेज्जा। [सु० 83 बोयो गमओ] / [83] वे (संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) जघन्य काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं; इत्यादि सब वक्तव्यता यावत् भवादेश तक पूर्वोक्त रूप से जानना। कालादेश से भी जघन्यतः उसी प्रकार यावत् चार पूर्वकोटि अधिक (66 सागरो गरोपम), इतने काल तक यावत गमनागमन करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) [सू. 83 द्वितीय गमक] 64. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, स च्चेव लद्धी जाव अणुबंधो त्ति, भवाएसेणं जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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