________________ 102] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [उ.] गौतम ! जो भवसिद्धिक (भव्य) होता है, वह नैरयिक भी होता है, और अनैरयिक भी होता है। तथा जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक भी होता है और अभवसिद्धिक भी होता है। 10. एवं वंडपो जाब वेमाणियाणं / [10] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त सभी दण्डक (बालापक) कहने चाहिए / विवेचन-जीव का निश्चित स्वरूप और उसके सम्बन्ध में अनेकान्तशैली में प्रश्नोत्तरप्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 2 से 10 तक) में जीव के सम्बन्ध में निम्तोक्त अंकित किये गए हैं--- 1. जीव नियमत: चैतन्यरूप है और चैतन्य भी नियमतः जीव-स्वरूप है। 2. नैरयिक नियमतः जीव है, किन्तु जीव कदाचित् नैरयिक और कदाचित् अनैरयिक भी हो सकता है। 3. असुरकुमार से लेकर वैमानिक देव तक नियमत: जीव हैं, किन्तु जीव कदाचित् असुरकुमारादि होता है, कदाचित् नहीं भी होता। 4. जो जीता (प्राण धारण करता) है, वह निश्चय ही जीव है, किन्तु जो जीव होता है, वह (द्रव्य-) प्राण धारण करता है और नहीं भी करता। 5. नैरयिक नियमतः जीता है, किन्तु जो जीता है, वह नैरयिक भी हो सकता है, अनैरयिक भी / यावत् वैमानिक तक यही सिद्धान्त है। 6. जो भवसिद्धिक होता है, वह नै रयिक भी होता है, अनैरयिक भी। तथा जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक होता है, अभवसिद्धिक भी।' दो बार जीव शब्दप्रयोग का तात्पर्य-दूसरे प्रश्न में जो दो बार जीवशब्द का प्रयोग किया गया है, उसमें से एक जीव शब्द का अर्थ 'जीव' (चेतन-धर्मीद्रव्य) है, जबकि दूसरे जीवशब्द का अर्थ चैतन्य (धर्म) है / जीव और चैतन्य में अविनाभाव, सम्बन्ध बताने हेतु यह समाधान दिया गया है। अर्थात-जो जीव है, वह चैतन्यरूप है और जो चैतन्यरूप है, वह जीव है। 'जीव, कदाचित् जीता है, कदाचित् नहीं जीता; इसका तात्पर्य-अजीव के तो प्रायुष्यकर्म न होने से वह प्राणों को धारण नहीं करता, किन्तु जीवों में भी जो संसारी जीव हैं, वे ही प्राणों धारण करते हैं, किन्तु जो सिद्ध जीव हैं, वे जीव होते हुए भी द्रव्यप्राणों को धारण नहीं करते / इस अपेक्षा से कहा गया है-जो जीव होता है, वह जीता (प्राण धारण करता) भी है, नहीं भी जीता। एकान्तदुःखवेदनरूप अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक अनेकान्तशैली से सुखदुःखादिवेदनप्ररूपरणा-- 11. [1] अन्नउस्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति--"एवं खलु सम्वे पाणा सवे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता एगंतदुक्खं वेदणं वेति से कहमेतं माते ! एवं ? 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त [मूलपाठ टिप्पणयुक्त] भा. 1, पृ. 270-271 2. भगवती० अ. वृत्ति, पत्रांक 286 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org