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________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10] [ 237 के आदेश से तदुभय-पर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध प्रात्मा नो प्रात्मा और आत्माएँ-नोआत्माएँ इस उभयरूप से प्रवक्तव्य है। (18) एक देश के आदेश से सद्भावपर्याय की अपेक्षा से बहुत देशों के आदेश से असद्भावपर्यायों की अपेक्षा से और एकदेश के आदेश से तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध प्रात्मा, नो-प्रात्माएँ और आत्मा-नो-प्रात्मा उभय रूप से प्रवक्तव्य है / (16) बहुत देशों के प्रादेश से सद्भाव-पर्यायों की अपेक्षा से, एक देश के प्रादेश से असद्भावयर्याय की अपेक्षा से तथा एक देश के आदेश से तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्माएँ, नोप्रात्मा और आत्मा-नो प्रात्मा उभयरूप से प्रवक्तव्य है। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि चतुष्प्रदेशी स्कन्ध कथंचित् प्रात्मा है, कथंचित् नो-आत्मा है और कथंचित् अवक्तव्य है। इस निक्षेप में पूर्वोक्त सभी भंग यावत् 'नो-आत्मा है' तक कहना चाहिए। विवेचन-चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के उन्नीस भंग-चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में भी त्रिप्रदेशी स्कन्ध के समान जानना चाहिए / अन्तर यही है कि चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के 16 भंग बनते हैं / सप्तभंगी में से तीन भंग तो सकलादेश की विवक्षा एवं सम्पूर्ण स्कन्ध की अपेक्षा से असंयोगी होते हैं। शेष सप्तभंगी के चार भंगों में प्रत्येक के चार-चार विकल्प होते हैं। उनमें बारह भंग तो द्विसंयोगी होते हैं शेष चार भंग त्रिसंयोगी होते हैं।' 12 3 रेखाचित्र इस प्रकार है-१ प्रा. नो. अवक्तव्य overprw] 1 nor wow.00 1 / 31. [1] प्राया भंते ! पंचपएसिए खंधे, अन्न पंचपएसिए खंधे ? गोयमा ! पंचपएसिए खंधे सिय प्राया 1, सिय नो आया 2, सिय अवत्तव्वं प्राया ति य नो आया ति य 3, सिय आया य नो आया य 4-7, सिय प्राया य प्रवत्तव्वं 8.11, नो आया य पाया-अवत्तम्वेण य 12-15, तियगसंजोगे एक्को ण पडइ 16-22 / [31-1 प्र.] भगवन् ! पंच प्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, अथवा अन्य (नो आत्मा) है ? [31-1 उ.] गौतम! पंच प्रदेशी स्कन्ध (1) कथंचित् आत्मा है, (2) कथचित नो अात्मा है, (3) अात्मा-नो-आत्मा-उभयरूप होने से कथंचित् अवक्तव्य है / (4-7) कथंचित् आत्मा और नो आत्मा (के चार भंग) (8-11) कथंचित् प्रात्मा और प्रवक्तव्य (के चार भंग), (12-15) (कथंचित्) नो आत्मा और अवक्तव्य (के चार भंग) (16-22) तथा त्रिकसंयोगी आठ भंगों में एक (पाठवाँ) भंग घटित नहीं होता, अर्थात् सात भंग होते हैं / कुल मिला कर बावीस भंग होते हैं / [2] से केण?णं भंते !0 तं चेव पडिउच्चारेयध्वं / गोयमा ! अप्पणो आदिट्ठ आया 1, परस्स आदि8 नो आया 2, तदुभयस्स आविट्ठ अवत्तव्वं० 3, देसे आदितु सम्भावपज्जवे, देसे प्राविट्ठ असम्भावपज्जवे, एवं दुयगसंजोगे सव्वे पति / तियगसंजोगे एक्को ण पडइ / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 595 . (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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