________________ छठा शतक : उद्देशक-४] [41 . [14-2] पौघिक (समुच्चय) अज्ञान, मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए / विभंगज्ञान में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए। 15. [1] सजोगी जहा प्रोहिओ। मणजोगी वयजोगी कायजोगी जीवादिलो तियभंगो, नवरं कायजोगी एगिदिया तेसु प्रभगकं / [15-1] जिस प्रकार औधिक जीवों का कथन किया, उसी प्रकार सयोगी जीवों का कथन करना चाहिए / मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए। विशेषता यह है कि जो काययोगी एकेन्द्रिय होते हैं, उनमें अभंगक (अधिक भंग नहीं, केवल एक भंग) होता है / [2] प्रजोगी जहा अलेसा। [15-2] अयोगी जीवों का कथन अलेश्यजीवों के समान कहना चाहिए। 16. सागारोवउत्त-प्रणागारोवउहि जीवेगिदियवज्जो तियभगो। [16] साकार उपयोग वाले और अनाकार उपयोग वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए। 17. [1] सवेयगा य जहा सकसाई / इस्थिवेयग-पुरिसवेदग-नयुसगवेदगेसु जीवादियो तियभगो, नवरं नपुसगवेदे एंगिदिएसु प्रमंगयं / 17-1] सवेदक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान करना चाहिए / स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुसकवेदी जीवों में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए / विशेष यह है कि नपुसकवेद में जो एकेन्द्रिय होते हैं, उनमें अभंगक (अधिक भंग नहीं, किन्तु एक भंग) है / [2] अदेयगा जहा प्रकसाई / [17-2] जैसे अकषायी जीवों के विषय में कथन किया, वैसे ही अवेदक (वेदरहित) जीवों के विषय में कहना चाहिए। 18. [1] ससरीरी जहा प्रोहियो / पोरालिय-उब्वियसरीरीणं जीवएगिदियवज्जो तियभंगो। पाहारगसरोरे जीव-मणुएसु छब्भ गा / तेयग-कम्मगाणं जहा प्रोहिया / [18-1] जैसे औधिक जीवों का कथन किया, वैसे ही सशरीरी जीवों के विषय में कहना चाहिए / औदारिक और वैक्रियशरीर वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग कहने चाहिए / आहारक शरीरबाले जीवों में जीव और मनुष्य में छह भंग कहने चाहिए। तेजस और कार्मण शरीर वाले जीवों का कथन औधिक जीवों के समान कहना चाहिए। [2] असरीरेहि जीव-सिद्ध हि तियभगो। [18-2] अशरीरी, जीव और सिद्धों के लिए तीन भंग कहने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org