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________________ 22] [ भगवतीसूत्र गोयमा ! चलिगं कम्मं निज्जरेंति, नो प्रचलियं कम्मं निज्जरेंति 8 / गाहा-- बंधोदय-वेदोव्वट्ट-संकमे तह निहत्तण निकाए / अचलियं कम्मं तु भवे चलितं जीवाउ निज्जरए // 5 // [1. १०.प्र.] भगवन् ! क्या नारक जीवप्रदेश से चलित कर्म को निर्जरा करते हैं अथवा अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं ? 1. 10. उ.] गौतम ! (वे) चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते। गाथार्थ-बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन के विषय में प्रचलित कर्म समझना चाहिए और निर्जरा के विषय में चलित कर्म समझना चाहिए। विवेचन-नारकों की स्थिति आदि के सम्बन्ध के प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत छठे सूत्र के 24 अवान्तर विभाग (दण्डक) करके शास्त्रकार ने प्रथम अवान्तर विभाग में नारकों को स्थिति आदि से सम्बन्धित 10 प्रश्नोत्तर-समूह प्रस्तुत किये हैं। वे क्रमश: इस प्रकार हैं-(१) स्थिति, (2) श्वासोच्छ्वास समय, (3) आहार, (4) पाहारित-अनाहारित पुद्गल परिणमन, (5) इन्हीं के चय, उपचय, उदीरणा, वेदना, और निर्जराविषयक विचार, (6) पाहारकर्म द्रव्यवर्गणा के पुद्गलों के भेदन, चय, उपचय, उदीरणा, वेदना, निर्जरा, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन से सम्बन्धित विचार, (7-8) तैजस-कार्मण के रूप में गहीत पुद्गलों के ग्रहण, उदीरणा, वेदना और निर्जरा की अपेक्षा त्रिकालविषयक विचार, (9-10) चलित-प्रचलित कर्म सम्बन्धी बन्ध, उदीरणा, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन, निकाचन एवं निर्जरा की अपेक्षा विचार / ' स्थिति आत्मारूपी दीपक में प्रायुकर्मपुद्गलरूपी तेल के विद्यमान रहने की सामयिक मर्यादा प्राणमन-प्राणमन तथा उच्छ वास-निःश्वास-यद्यपि याणमन-प्राणमन तथा उच्छ्वासनिःश्वास का अर्थ समान है, किन्तु इनमें अपेक्षाभेद से अन्तर बताने की दृष्टि से इन्हें पृथक्-पृथक् ग्रहण किया है / प्राध्यात्मिक (आभ्यन्तर) श्वासोच्छ्वास को ग्राणमन-प्राणमन और बाह्य को उच्छवास-निःश्वास कहते हैं। प्रज्ञापनासूत्र में नारकों के सतत श्वासोच्छवास लेने-छोडने का वर्णन है / नारकों का प्राहार-प्रज्ञापनासूत्र में बताया है कि नारकों का आहार दो प्रकार का होता है-आभोग निर्वतित (खाने की बुद्धि से किया जाने वाला) और अनाभोगनिर्वर्तित (आहार की इच्छा के बिना भी किया जाने वाला) / अनाभोग माहार तो प्रतिक्षण-- सतत होता रहता है, किन्तु आभोगनिर्वत्तित-पाहार को इच्छा कम से कम असंख्यात समय में, अर्थात्---अन्तर्मुहूर्त में होती है / 1. 2. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 19 से 25 तक का सारांश भगवतीसत्र अ. वत्ति पत्रांक 11 (क) वही, पत्रांक 19, (ख) प्रज्ञापना, उच्छ्वासपद-में--"गोयमा! सययं संतयामेव प्राणति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नौससंति वा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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