________________ पंचम शतक : उद्देशक-४ } [455 [2] से केपट्टणं मते ! जाव केवली गं अस्सि समयंसि जेसु ागासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिट्ठति नो णं पमू केवली सेयकालसि वि तेसु चेव भागासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिद्वित्तए ? __गोयमा ! केलिस्स णं वोरियसजोगद्दध्वताए चलाई उवगरणाई भवंति चलोवगरणट्टयाए य णं केवली प्रस्सि समयंसि जेसु प्रागासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिट्ठति णो णं पभू केवली सेयकालसि वि तेसु चेव जाव चिद्वित्तए / से तेण?णं जाव वुच्चइ–केवलो णं अस्सि समयंसि जाव चिद्वित्तए ? [35-2 प्र.| भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि केवली भगवान् इस समय में जिन आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को यावत् अवगाढ करके रहते हैं, भविष्यकाल में वे उन्हीं आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को यावत् अवगाढ करके रहने में समर्थ नहीं हैं ?' [35-2 उ.] गौतम ! केवली भगवान का जीवद्रव्य वीर्यप्रधान योग वाला होता है, इससे उनके हाथ आदि उपकरण (अंगोपांग) चलायमान होते हैं। हाथ आदि अंगों के चलित होते रहने से वर्तमान (इस) समय में जिन आकाशप्रदेशों में केवली भगवान् अपने हाथ आदि को अवगाहित करके रहे हुए हैं, उन्हीं प्राकाशप्रदेशों पर भविष्यत्काल में वे हाथ आदि को अवगाहित करके नहीं रह सकते / इसी कारण से यह कहा गया है कि केवली भगवान् इस समय में जिन आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ, पैर यावत् उरू को अवगाहित करके रहते हैं, उस समय के पश्चात् आगामी समय में वे उन्हीं प्राकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को अवगाहित करके नहीं रह सकते। विवेचन-केवली भगवान का वर्तमान और भविष्य में प्रवगाहनसामर्थ्य प्रस्तुत सूत्र में केवली भगवान् के. अवगाहन-सामर्थ्य के विषय में प्ररूपणा की गई है कि वे वर्तमान समय में जिन आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को अवगाहित करके रहते हैं, भविष्य में उन्हीं अाकाशप्रदेशों को अवगाहित करके रहेंगे ऐसा नहीं है क्योंकि उनका जीवद्रव्य वीर्यप्रधान योग वाला होने से उनके अंग चलित होते रहते हैं, इसलिए वे उन्हीं आकाशप्रदेशों को उस समय के अनन्तर भविष्यत्काल में अवगाहित नहीं कर सकते।' कठिन शब्दों के अर्थ-अस्सि समयंसि= इस (वर्तमान) समय में / ऊरु = जंघा / सेयंकालंसि = भविष्यत्काल में। वोरियसजोगसहन्वताएवीर्यप्रधान योग वाला स्व (जीव) द्रव्य होने से / चलोवकरणट्टयाए उपकरण (हाथ आदि अंगोपांग) चल---(अस्थिर) होने के कारण / ' चतुर्दश पूर्वधारी का लब्धि-सामर्थ्य-निरूपण-- 36. [1] पमूण मते ! चोइसपुवी घडामो घडसहस्सं, पडाप्रो पडसहस्सं, कडाप्रो कडसहस्सं, रहाप्रो रहसहस्सं, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडात्रो दंडसहस्सं अभिनिव्धत्तित्ता उवदंसेत्तए ? हता, पभू। [36-1 प्र.] भगवन् ! क्या चतुर्दशपूर्वधारी (श्रुतकेवली) एक घड़े में से हजार घड़े, एक वस्त्र में से हजार वस्त्र, एक कट (चटाई) में से हजार कट, एक रथ में से हजार रथ, एक छत्र में से हजार छत्र और एक दण्ड में से हजार दण्ड करके दिखलाने में समर्थ हैं ? 1. वियाहपग्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 203 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 224 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org