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________________ पैतीसवां शतक : उद्देशक 1] 10. ते णं भंते ! जीवा कि सातावेदगा० पुच्छा। गोयमा ! सातावेयगा वा असातावेयगा वा / एवं उप्पलुद्देसगपरिवाडी (स० 11 उ० 1 सु० 12-13) --सन्वेसि कम्माणं उदई, नो अणुदई / छण्हं कम्माणं उदीरगा, नो अणुदीरगा। वेयणिज्जा-ऽऽउयाणं उदोरगा वा, अणुदोरगा वा। [10 प्र. भगवन् ! वे जीव माता के बेदक हैं अथवा असाता के वेदक हैं ? [10 उ.] गौतम ! वे मातावेदक होते हैं, अथवा असातावेदक भी एवं उत्पलोद्देशक (श. 11, उ. 11, सू. 12-13) की परिपाटी के अनुसार बे सभी कर्मों के उदय वाले हैं, अनुदयी नहीं / वे छह कर्मों के उदोरक हैं, अनुदीरक नहीं नथा वेदनीय और आयुष्यकर्म के उदीरक भी हैं और अनुदीरक भी। 11. ते णं भंते जीवा कि कण्ह० पुच्छा। गोयमा ! कण्हलेस्सा वा नोललेस्सा वा काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा / नो सम्मट्टिी, मिच्छविट्ठी, नो सम्मामिच्छद्दिट्ठी। नो नाणी, अन्नाणो; नियमं दुमन्नाणो, तं जहा–मतिअन्नाणी य, सुयअन्नाणी य / नो मणजोगी, नो वइजोगो, कायजोगी। सागारोवउत्ता वा, अणागारोव-उत्तावा / [11 प्र.] भगवन् ! वे एकेन्द्रिय जीव क्या कृष्णलेश्या वाले होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 11 उ.] गौतम ! वे जीव कृष्णलेश्यी, नीललेश्यो, कापोतलेश्यी अथवा तेजोलेश्यी होते हैं / वे सम्पगदष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते, मिथ्यादृष्टि होते हैं। वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं / वे नियमतः दो अज्ञान वाले होते हैं। यथामतिअज्ञानी और श्रुत अज्ञानी / वे मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते, केवल काययोगी होते हैं। वे साकारोपयोग वाले भी होते हैं और अनाकारोपयोग वाले भी। 12. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरोरगा कतिवण्णा ? जहा उप्पलुद्देसए (स० 11 उ०१ सु० 19-30) सम्वत्थ पुच्छा। गोयमा ! जहा उप्पलुद्देसए / ऊसासमा बा, नीसासगा वा, नो ऊसासगनोसासगा। आहारगा वा, अणाहारगा वा। नो विरया, अविरया, नो विरयाविरया। सकिरिया, नो अकिरिया। सत्तविहबंधगा वा, अविहबंधगावा। श्राहारसनोवउत्ता वा जाव परिग्गहसन्नोव उत्ता वा। कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा। नो इत्थवेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा। इस्थिवेदबंधगा वा, पुरिसवेदबंधगा वा, नपुंसगवेदबंधगा वा / नो सणो, असम्णो / सइंदिया, नो अणि दिया। 12 प्र. भगवन् ! उन एकेन्द्रिय जीवों के शरीर कितने वर्ण के होते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न (श. 11, उ. 1) उत्पलोद्देशक (भू. 16 से 30 तक) के अनुसार / / [12 उ.] गौतम ! उत्पलोद्देशक के अनुसार, उनके शरीर पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और पाठ स्पर्श वाले होते हैं। वे उच्छवास वाले या निःश्वास वाले अथवा नो-उच्छ्वास-नि:श्वास वाले होते हैं। वे ग्राहारक या अनाहारक होते हैं। वे विरत (सर्वविरत) और विरत) नहीं होते, किन्तु अविरत होते हैं। वे क्रियायुक्त होते हैं, क्रियारहित नहीं। वे सात या आठ कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं। बे आहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा वाले होते हैं / वे क्रोधकषायी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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