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________________ 692) [घ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परमाणुपोग्गले, सेलेसि पडिकन्नए अणगारे, एए गं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य जीवाणं परिभोगत्ताए नो हन्वमागच्छति / से तेणगुणं जाव नो हव्वमागच्छंति / [2-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि प्राणातिपातादि जीव-अजीवद्रव्यरूप में से यावत् कई तो जीवों के परिभोग में प्राते हैं और कई जीवों के परिभोग में नहीं आते ? 2-2 उ.] गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और सभी स्थूलाकार कलेवरधारी (द्वीन्द्रियादि जीव); ये सब मिल कर जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्यरूप-दो प्रकार के हैं; ये सब, जीवों के परिभोग में आते हैं। तथा प्राणातिपात-विरमण, यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत् परमाणु-पुद्गल एवं शैलेशीअवस्था प्राप्त अनगार, ये सब मिल कर जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्य रूप-दो प्रकार के हैं / ये सब जीवों के परिभोग में नहीं आते। इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि कई द्रव्य जीवों के परिभोग में पाते हैं और कई द्रव्य परिभोग में नहीं पाते / विवेचन प्राणातिपातादि 48 द्रव्यों में से जीवों के लिए कितने परिमोग्य कितने अपरिभोग्य?—प्राणातिपात आदि 18 पापस्थान, अठारह पापस्थानों का त्याग, पांच स्थावर, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीरी जीव, परमाणु पुद्गल, शैलेशी अवस्थापन्न अनगार, स्थूलाकार वाले त्रसकाय कलेवर, ये 48 द्रव्य सामान्यतया दो प्रकार के हैं। इनमें से कितने ही जीव रूप हैं और कितने ही अजीवरूप हैं, किन्तु प्रत्येक दो प्रकार के नहीं हैं। इनमें से पृथ्वीकायादि जीव द्रव्य हैं और धर्मास्ति कायादि अजीव द्रव्य हैं। प्राणातिपातादि अशुद्ध स्वभावरूप और प्राणातिपातादि-विरमण शुद्धस्वभाव रूप जीव के धर्म हैं। इसलिए ये जोव रूप कहे जा सकते हैं / जब जीव प्राणातिपातादि का प्रवृत्ति रूप से सेवन करता है, तब चारित्रमोहनीय कर्म उदय में आता है / उसके द्वारा चारित्रमोहनीयकर्मदलिक भोग के कारण होने से प्राणातिपात आदि जीव के परिभोग में आते हैं। पृथ्वीकायादि का परिभोग तो गमन-शौचादि द्वारा स्पष्ट ही है / प्राणातिपातविरमणादि जीव के शुद्ध स्वरूप होने से चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के हेतुभूत नहीं होते / बधादि रति-रूप होने से ये प्राणातिपात-बिरमणादि जीव रूप हैं। इसलिए वे जीव के परिभोग में नहीं पाते / धर्मास्तिकायादि चार द्रव्य अमृत हैं, परमाण सक्षम हैं और शैलेशीप्राप्त अनगार उपदेशादि द्वारा प्रेरणा नहीं करते, इसलिए ये 18+4+1+1=24 द्रव्य अनुपयोगी होने से जीव के परिभोग में नहीं पाते / शेष 24 (अठारह पाप, पांच स्थावर और बादर कलेवर) जीव के परिभोग में पाते हैं।' कठिन शब्दार्थ-जीवे असरीरप्रतिबद्ध-शरीररहित केवल शुद्ध जीव (आत्मा)। बादरबोंदिधरा कलेवरा-स्थूलशरीरधारी जीवों (द्वीन्द्रियादि त्रस जीवों) के कलेवर / 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्र 745 2. (क) वही, पत्र 745 (ख) भगवती. विवेचन, भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी) प्र. 2693 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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