________________ 296 [स्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [57-1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान, क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के पास प्रकट होने (जाने) में समर्थ है ? [57-1 उ.] हाँ गौतम ! ईशानेन्द्र, शकेन्द्र के पास जाने में समर्थ है / [2] से भंते ! कि आढायमाणे पभू. प्राणाढायमाणे पभू? गोयमा ! आढायमाणे वि पमू, अणाढायमाणे वि पभू / [57-2 प्र.] भगवन् ! (जब ईशानेन्द्र, शक्रेन्द्र के पास जाता है तो), क्या वह प्रादर करता हुअा जाता है, या अनादर करता हुआ जाता है ? {57.2 उ.] गौतम ! (जब ईशानेन्द्र, शक्रेन्द्र के पास जाता है, तब वह आदर करता हुआ भी जा सकता है, और अनादर करता हुग्रा भी जा सकता है। 58. पभ णं मते ! सक्के देविद देवराया ईसाणं देवि देवरायं सक्खि सपडिदिसि समभिलोएत्तए? ___ जहा पादुम्भवणा तहा दो वि पालावगा नेयम्वा / [58 प्र.] भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के समक्ष (चारों दिशाओं में) तथा सप्रतिदिश (चारों कोनों में = सब ओर) देखने में समर्थ है ? [58 उ.] गौतम ! जिस तरह से पास प्रादुर्भूत होने (जाने) (के सम्बन्ध में दो आलापक कहे हैं, उसी तरह से देखने के सम्बन्ध में भी दो पालापक कहने चाहिए।' 56. पभू णं भाते ! सबके देविदे देवराया ईसाणेणं देविदेणं देवरणा सद्धि प्रालावं वा संलावं वा करेत्तए? हंता, पभू / जहा पादुम्भवणा। [59 प्र.) भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के साथ पालाप या संलाप (भाषण-संभाषण या बातचीत) करने में समर्थ है ? / [59 उ.] हाँ, गौतम ! वह पालाप-संलाप करने में समर्थ है। जिस तरह पास जाने के सम्बन्ध में दो पालापक कहे हैं, (उसी तरह पालाप-संलाप के विषय में भी दो पालापक कहने चाहिए।) 60. [1] अस्थि णं भते ! तेसि सकीसाणाणं देविदाणं देवराईणं किच्चाई करणिज्जाई समुपज्जति ? हंता, अस्थि / [60-1 प्र] भगवन् ! उन देवेन्द्र देवराज शक और देवेन्द्र देवराज ईशान के बीच में परस्पर कोई कृत्य (प्रयोजन) और करणीय (विधेय-करने योग्य) समुत्पन्न होते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org