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________________ गया है / उसके पश्चात गणधर गौतन को अन्तरंग और बाह्य छवि चित्रित की गई है। गौतम जितने बड़े तत्त्वज्ञानी शे उतने ही बड़े साधक भी थे। श्रुत और शील की पवित्र धारा से उनकी प्रात्मा सम्पूर्ण रूप से परिप्लावित हो रही थी। एक ओर वे उन और घोर तपस्वी थे तो दूसरी ओर समस्त श्रुत के अधिकृत ज्ञाता भी थे। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि किसी भी व्यक्ति का अन्तरंग दर्शन करने से पहले दर्शक पर उसके बाह्य व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ता है। प्रथम दर्शन में ही व्यक्ति उसके तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित हो जाता है। यदि व्यक्ति के चेहरे पर भोज है, प्राकृति से सौन्दर्य छलक रहा है, आँखों में अदभत तेज चमक रहा है और मुख पर मुस्कान अठखेलियां कर रही हैं तो आन्तरिक व्यक्तित्व में सौन्दर्य का अभाव होने पर भी बाह्य सौन्दर्य से दर्शक प्रभावित हो जाता है। यदि बाह्य सौन्दर्य के साथ आन्तरिक सौन्दर्य हो तो सोने में सूगन्ध की उक्ति चरितार्थ हो जाती है। यही कारण है कि जितने भी विश्व में महापुरुष हुए हैं, उनका बाह्य व्यक्तित्व प्रायः प्राकर्षक और लुभावना रहा है और साथ ही प्रान्तरिक जीवन तो बाह्य व्यक्तित्व से भी अधिक चित्ताकर्षक रहा है। प्रोपपातिक में भगवान् महावीर के बाह्य व्यक्तित्व का प्रभावोत्पादक चित्रण है७४ तो बुद्धचरित्र में महाकवि अश्वघोष ने बुद्ध के लुभावने शरीर का वर्णन किया है कि उस तेजस्वी मनोहर रूप को जिसने भी देखा, उसकी ही आँखें उसी में बंध गई।७५ उसे निहार कर राजगह की लक्ष्मी भी संक्षग्ध हो गई।७६ जिन व्यक्ति होती है, उनमें शारीरिक सुन्दरता होती है। मणधर गौतम का शरीर भी बहुत सुन्दर था / जहाँ वे सात हाथ ऊँचे कद्दावर थे, वहाँ उनके शरीर का अान्तरिक गठन भी बहुत ही सुदृढ़ था। वे वन-ऋषभ-नाराच-संहननी थे। सुन्दर शारीरिक गठन के साथ ही उनके मुख, नयन, ललाट आदि पर अद्भुत प्रोज और चमक थी। जैसे कसौटी पत्थर पर सोने की रेखा खींच देने से वह उस पर चमकती रहती है, वैसे ही सुनहरी आभा गौतम के मुख पर दमकती रहती थी। उनका वर्ण गौर था। कमल-केसर की भांति उनमें गुलाबी मोहकता भी थी। जब उनके ललाट पर सूर्य की चमचमाती किरणें गिरतीं तो ऐसा प्रतीत होता कि कोई शीशा या पारदर्शी पत्थर चमक रहा है / वे जब चलते तो उनकी दृष्टि सामने के मार्ग पर टिकी होती। वे स्थिर दृष्टि से भूमि को देखते हुए चलते। उनकी गति शान्त, चंचलता रहित और असंभ्रान्त थी जिसे निहार कर दर्शक उनकी स्थितप्रज्ञता का अनुमान लगा सकता था। वे सर्वोत्कृष्ट तपस्वी थे, पूर्ण स्वावलम्बी और ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी थे। उनके लिए वोर तपस्वी के साथ 'घोरवंभचेरवासी' विशेषण भी प्रयुक्त हुआ है। साधना के चरमोत्कर्ष पर प.चे हए वे विशिष्ट साधक थे। उन्हें तपोजन्य अनेक लब्धियों और सिद्धियाँ प्राप्त हो चुकी थी। वे चौदह पूर्वी व मनःपर्यव ज्ञानी थे। साथ ही वे बहुत ही सरल और विनम्र थे। उनमें ज्ञान का अहंकार नहीं था और न अपने पद और साधना के प्रति मन में अहं था। वे सच्चे जिज्ञासु थे। गौतम की मनःस्थिति को जताने वाली एक शब्दावली प्रस्तुत आगम में अनेक बार आई है—'जायसङ्डे, जायसंसए, जायकोउहल्ले'। उनके अन्तर्मानस में किसी भी तथ्य को जानने की श्रद्धा, इच्छा पैदा हुई, संशय हुमा, कौतूहल हुआ और वे भगवान् की ओर आगे बढ़े। इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि गौतम की वृत्ति में मूल घटक वे ही तत्त्व थे- जो सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र की उत्पत्ति में मूल घटक रहे हैं। 74. अवदालियपुंडरीयणयणे ... चन्दद्धसमणिडाले वरमहिस-वराह-सीह-सद्ल-उसभ-नागवरपडिपुणविउल खंधे........। -प्रोपपातिक सूत्र 1 75. यदेव यस्तस्य ददर्श तत्र तदेव तस्याथ बबन्ध चक्षुः। -बुद्धचरित 108 76. ज्वलच्छरीरं शुभजालहस्तम् संचाभे राजगृहस्य लक्ष्मीः। -बुद्धचरित 1019 77. प्रज्ञापना, 23 [30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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