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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 7] [333 जीवों के भी काय होता है, अजीवों के भी जीवों के काय (शरीर) होता है यह तो प्रत्यक्षसिद्ध है। मिट्टी के लेप आदि से बनाई गई शरीर की आकृति अजीवकाय भी होती है / ' काया पहले-पीछे भी और वतमान में भो-जीव का सम्बन्ध होने से पूर्व भी काया होती है, जसे --- मेंढक का मृत कलेवर / उसका भविष्य में जीव के साथ सम्बन्ध होने पर वह जीव का काय बन जाता है / वर्तमान में जीव के द्वारा उपचित किया जाता हुआ भी काय होता है / जैसे—जीवित शरीर / काय—समय व्यतीत हो जाने अर्थात् जीव के द्वारा कायरूप से उपचय करना बन्द हो जाने पर भी काय रहता है, जैसे मृत कलेवर / काया का भेदन पहले, पीछे और वर्तमान में भी जिस घड़े में भविष्य में मधु रखा जाएगा, समे मध्घट कहा जाता है। इसी प्रकार जीव के द्वारा कायरूप से ग्रहण करने के समय से पूर्व भी काय होता है। उस में प्रतिक्षण पुद्गलों का चय-अपचय होने से उस द्रव्यकाय का भेदन होता है। जीव के द्वारा कायारूप से ग्रहण करते समय भी काया का भेदन होता है, जैसे-बालू से भरी हुई मुट्ठी में से उसके कण प्रतिक्षण झड़ते रहते हैं, वैसे ही काया में से प्रतिक्षण पुद्गल झड़ते रहते हैं। जिस घड़े में घी रखा गया था, उसमें से घी निकाल लेने पर भी उसे 'घो का घड़ा' कहते हैं, वैसे ही काय-समय व्यतीत हो जाने पर भी भूतभाव की अपेक्षा से उसे काय कहा जाता है / भेदन होना 'पुद्गलों का स्वभाव है, इसलिए उस भूतपूर्व काय का भी भेदन होता है। चणिकार के अनुसार व्याख्या-णिकार ने 'काय' शब्द का अर्थ–'समस्त पदार्थों का सामान्य चयरूप शरीर' किया है। उनके अनुसार प्रात्मा भी काय है, अर्थात् प्रदेश-संचयरूप है तथा काय प्रदेश-संचयरूप होने से प्रात्मा से भिन्न भी है / पुद्गलस्कन्धों की अपेक्षा से काय रूपी भी है और जीव-धर्मास्तिकायादि को अपेक्षा से काय अरूपी भी है। जीवित शरीर की अपेक्षा से काय सचित्त भी है और अचेतन संचय की अपेक्षा से काय अचित्त भी है / उच्छ्वासादि-युक्त अवयव-संचय की अपेक्षा से काय जीव है और उच्छ्वासादि अवयव-संचय के अभाव में काय अजीव भी है / जीवों के काय का अर्थ है-जीवराशि और अजीवों के काय का अर्थ है---परमाणु आदि की राशि। इस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से काय से सम्बन्धित शेष पदों की व्याख्या भी समझ लेनी चाहिए। काय के सात प्रकारों का प्रर्थ औदारिककाय-उदार अर्थात्-प्रधान स्थूल पुद्गलस्कन्धरूप होने से औदारिक तथा उपचीयमान होने से काय कहलाता है / यह पर्याप्तक जीव के होता है / औदारिकमिश्र औदारिकशरीर कार्मणशरीर के साथ मिश्र हो, तब औदारिकमिश्र होता है, यह अपर्याप्तक जीव के होता है। वैक्रियकाय--पर्याप्तक देवों आदि के होता है। बैंक्रियमिश्र-वैक्रियशरीर कार्मण के साथ मिश्रित हो तब वैक्रियमित्र होता है। यह अप्रतिपूर्ण वैक्रियशरीर वाले देव आदि के होता है / आहारक-आहारकशरीर निष्पन्न होने पर आहारककाय कहलाता है। आहारकमिश्र-ग्राहारकशरीर का परित्याग करके औदारिक शरीर ग्रहण करने के लिए उद्यत 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 623 2. वही, पत्र 623 3. (क) वहीं, पत्र 623 (ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2253 4. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 623 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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