________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [ 243 बत्तीसवें प्रवेशनक नामक उद्देशक में जिस प्रकार हम कहेंगे, उसी प्रकार उपयोग लगाकर यहाँ भी कहने चाहिए; यावत् अथवा अनन्त द्रव्य परिमण्डल-संस्थानरूप से परिणत होते हैं, यावत् अनन्त द्रव्य आयत-संस्थानरूप से परिणत होते हैं / विवेचन-चार प्रादि द्रव्यों के मन-वचन-काय को अपेक्षा प्रयोगादि परिणत के संयोग से होने वाले भंग प्रस्तुत सूत्रद्वय में चार प्रादि द्रव्यों के प्रयोगादि परिणामों के निमित्त से होने वाले भंगों का कथन किया गया है। चार द्रव्यों सम्बन्धी प्रयोग-परिणत प्रादि तीन पदों के भंग–चार द्रव्यों के प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विस्रसापरिणत प्रादि तीन पदों के असंयोगी 3 भंग, द्विकसंयोगी ह भंग और त्रिकसंयोगी 3 भंग होते हैं। इस तरह ये सभी मिलकर 3 18+3 =15 भंग होते हैं। पूर्वोक्त पद्धति के अनुसार इनसे आगे के भंगों के लिए पूर्वोक्त क्रम से संस्थानपर्यन्त यथायोग्य भंगों की योजना कर लेनी चाहिए। पंचद्रव्यसम्बन्धी और पांच से प्रागे के भंग-पांच द्रव्यों के असंयोगी तीन भंग, द्विकसंयोगी 12 भंग और त्रिकसंयोगी 6 भंग, यों कुल 3+12+6= 21 भंग होते हैं / इस प्रकार पांच, छह, यावत् अनन्त द्रव्यों के भी यथायोग्य भंग बना लेने चाहिए। सूत्र के मूलपाठ में 11 संयोगी भंग नहीं बतलाया गया है; क्योंकि पूर्वोक्त पदों में 11 संयोगी भंग नहीं बनता। नौवें शतक के ३२वें उद्देशक में गांगेय अनगार के प्रवेशनक सम्बन्धी भंग बताए गए हैं, तदनुसार यहाँ भी उपयोग लगाकर भंगों की योजना कर लेनी चाहिए।' परिणामों की दृष्टि से पुद्गलों का अल्पबहुत्व 61. एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं पयोगपरिणयाणं मीसापरिणयाणं वीससापरिणयाण य कतरे कतरोहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा पोग्गला पयोगपरिणया, मोसापरिणया अणंतगुणा, बीससापरिणया अणंतगुणा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥अट्टम सए : पढमो उद्देसमो समतो॥ [61 प्र. भगवन् ! प्रयोग-परिणत, मिश्र-परिणत और विलसा-परिणत, इन तीनों प्रकार के पुद्गलों में कौन-से (पुद्गल), किन (पुद्गलों) से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [91 उ.] गौतम ! प्रयोगपरिणत पुद्गल सबसे थोड़े हैं, उनसे मिश्रपरिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं, और उनसे विस्रसापरिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं। * 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; ऐसा कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे। 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 339 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org