________________ तृतीय शतक : उद्देशक-८] [ 385 6. सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु कति देवा अाहेबच्चं जाव विहरति ? गोयमा! दस वेवा नाव विहरंति, तं जहा--सक्के विदे देवराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे / ईसाणे देविदे देवराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे। एसा बत्तव्वया सब्बेसु वि कप्पेसु, एते चेव भाणियव्वा / जे य इंदा ते य भाणियन्वा / से भंते सेवं! भंते ति। // तइयसते : अटुमो उद्देसनो समत्तो // [6 प्र.] भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प में प्राधिपत्य करते हुए कितने देव विचरण करते हैं ? [6 उ.] गौतम ! उन पर आधिपत्य करते हुए यावत् दस देव विचरण करते हैं। यथादेवेन्द्र देवराज शक्र, सोम, यम, वरुण और वैश्रमण, देवेन्द्र देवराज ईशान, सोम, यम, वरुण, और वैश्रमण / ___ यह सारी वक्तव्यता सभी कल्पों (देवलोकों) के विषय में कहनी चाहिए और जिस देवलोक का जो इन्द्र है, वह कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-वाणयन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों पर प्राधिपत्य को प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सत्रों में क्रमशः वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों पर आधिपत्य की प्ररूपणा की गई है। __ वाणभ्यन्तर देव और उनके अधिपति दो-दो इन्द्र-चतुर्थ सूत्र में प्रश्न पूछा गया है पिशाचकुमारों के सम्बन्ध में, किन्तु उत्तर दिया गया है—वाणव्यन्तर देवों के सम्बन्ध में / इसलिए यहाँ पिशाचकुमार का अर्थ वाणव्यन्तर देव ही समझना चाहिए। वाणव्यन्तर देवों के 8 भेद हैं—किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच / इन प्रत्येक पर दो-दो अधिपति–इन्द्र इस प्रकार हैं-किन्नर देवों के दो इन्द्र-किन्नरेन्द्र, किम्पुरुषेन्द्र, किम्पुरुष देवों के दो इन्द्र-सत्पुरुषेन्द्र और महापुरुषेन्द्र, महोरगदेवों के दो इन्द्र—अतिकायेन्द्र और महाकायेन्द्र, गन्धर्वदेवों के दो इन्द्रगीतरतीन्द्र और गीतयशेन्द्र, यक्षों के दो इन्द्र--पूर्णभद्रेन्द्र और मणिभद्रेन्द्र, राक्षसों के दो इन्द्र-- भीमेन्द्र और महाभीमेन्द्र, भूतों के दो इन्द्र-सुरूपेन्द्र (अतिरूपेन्द्र) और प्रतिरूपेन्द्र, पिशाचों के दो इन्द्र-कालेन्द्र और महाकालेन्द्र / ' 1. (क) विवाहपण्णत्तिसुत्त (मूल पाठ टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 177 (ख) 'व्यन्तरा: किन्नर-किम्पुरुष-महोरग-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचाः ।'-तत्त्वार्थमूत्र भाष्य अ. 4, सू. 12, पृ. 97 से 99 (ग) 'पूर्वयोडीन्द्रा:'---तत्त्वार्थगूत्र-भाग्य, अ. 4 मू. 6, पृ. 92 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org