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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 204. एवं जाव कसायकुसीला / {204] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक जानना चाहिए / 205. नियंठा जहा पुलागा। [205] निर्ग्रन्थों का कथन पुलाकों के समान जानना चाहिए। 206. सिणाया जहा बउसा। [दारं 26] / 206] स्नातकों की वक्तव्यता बकुशों के समान है। [उनतीसवाँ द्वार विवेचन--पुलाकादि भाव कितने काल तक ? --पुलाकत्व को प्राप्त मुनि एक अन्तर्महत पूर्ण न हो, तब तक न तो पुलाकत्व से मरते हैं और न गिरते हैं / अर्थात्-कषायकुशीलपन में अन्तर्मुहूर्त से पहले जाते नहीं और पुलाकपन में मरते ही नहीं हैं / इसलिए उनका काल अन्तर्मुहूर्त का ही होता है। बकुशपन की प्राप्ति होने के साथ ही तुरंत मरण सम्भव होने से जघन्य एक समय तक बकुशपन रहता है / यदि पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला सातिरेक आठ वर्ष की वय में संयम स्वीकार करे तो उसका अपेक्षा उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि वर्ष होता है / निग्रन्थ का जघन्यकाल एक समय है, क्योंकि उपशान्तमोहगुणस्थानवर्ती निन्थ प्रथम समय में भी मरण को प्राप्त हो सकते हैं / निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त का है, क्योंकि निर्ग्रन्थपन इतने काल तक ही रहता है / स्नातक का जघन्यकाल अन्तर्मुहर्त इसलिए है कि आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में केवलशान उत्पन्न होने में जघन्य अन्तर्मुहूर्त के बाद वे मोक्ष में जा सकते हैं / उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटिवर्ष है। ___ काल-परिमाण : एकत्व-बहुत्व सम्बन्धी--पुलाक आदि का एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी काल-परिमाण इन सूत्रों में बताया गया है / एक पुलाक अपने अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समय में वर्तमान है, उसी समय में दूसरा मुनि पुलाकपन को प्राप्त करे तब दोनों पुलाकों का एक समय में सद्भाव होता। इस प्रकार अनेक पुलाकों (दो पुलाक हों तो भी वे भी अनेक कहलाते हैं) में जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त होता है, क्योंकि पुलाक एक समय में उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार तक) हो सकते है। बहुत हों तो भी उनका काल अन्तमुहूर्त होता है / किन्तु एक पुलाक की स्थिति के अन्तम हर्त्त से अनेक पुलाकों की स्थिति का अन्तर्महत बड़ा होता हैं / बकुशादि का स्थितिकाल तो सर्वकाल होता है, क्योंकि वे सदैव रहते हैं।' तीसवाँ अन्तरद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में काल के अन्तर का निरूपण 207. पुलागस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंतामो ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीयो कालो, खेतमो अवडं पोग्गलपरियट देसूणं / [207 प्र.] भगवन् ! (एक) पुलाक का अन्तर कितने काल का होता है ? 1. भगवती अ, वृत्ति, पत्र 906 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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