________________ 448] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [25 प्र.] भगवन् ! क्या केवली मनुष्य अन्तकर (कर्मों का या संसार का अन्त करने वाले) को अथवा चरमशरीरी को जानता-देखता है ? [25 उ.] हाँ गौतम ! वह उसे जानता-देखता है।' 26. [1] जहा णं भते ! केवली अंतकरं वा अंतिमसरोरियं वा जाणति पासति तथा गं छउमत्थे वि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासति ? गोयमा ! जो इण8 सम?, सोच्चा जाणति पासति पमाणतो वा। [26-1 प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार केवली मनुष्य अन्तकर को, अथवा अन्तिमशरीरी को जानता-देखता है, क्या उसी प्रकार छास्थ-मनुष्य भी अन्तकर को अथवा अन्तिमशरीरी को जानतादेखता है ? [26-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, (अर्थात्-केवली की तरह छद्मस्थ अपने ही ज्ञान से नहीं जान सकता), किन्तु छद्मस्थ मनुष्य किसी से सुन कर अथवा प्रमाण द्वारा अन्तकर और अन्तिम शरीरी को जानता-देखता है। [2] से कि तं सोच्चा ? सोच्चा णं केवलिस्स वा, केवलिसावयस्स वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स वा, केवलि उवासियाए वा, तप्पक्खियस्स बा, तपक्खियसागस्स वा, तपक्खियसावियाए वा, तप्पक्खियउवासगास वा तप्पक्खियउवासियाए बा / से तं सोच्चा / [26-2 प्र.] भगवन् ! सुन कर (किसीसे सुन कर) का अर्थ क्या है ? (अर्थात्-वह किससे सुन कर जान देख पाता है ? ) [26-2 उ.] हे गौतम ! केवली से, केवली के श्रावक से, केवली की श्राविका से, केवली के उपासक से, केवलो की उपासिका से, केवली-पाक्षिक (स्वयम्बुद्ध) से, केवलीपाक्षिक के श्रावक से, केवली-पाक्षिक की श्राविका से, केवलीपाक्षिक के उपासक से अथवा केवलीपाक्षिक की उपासिका से, इनमें से किसी भी एक से 'सुनकर' छद्मस्थ मनुष्य यावत् जानता और देखता है। यह हुआ 'सोच्चा' = 'सुन कर' का अर्थ / [3] से कि तं पमाणे? पमाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा --पच्चक्खे, अणुमाणे, पोवम्मे, प्रागमे / जहा अणुयोगद्दारे तहा णेयब्वं पमाणं जाव तेण परं नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे, परंपरागमे / [26-3 प्र.] भगवन् (और) वह प्रमाण' क्या है ? कितने हैं ? [26-3 उ.] गौतम! प्रमाण चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-(१) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान, (3) औपम्य (उपमान) और (4) आगम / प्रमाण के विषय में जिस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिए; यावत् न अात्मागम, न अनन्तरागम, किन्तु परम्परागम तक कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org