________________ चउत्थो उद्देसओ : 'जीवा' चतुर्थ उद्देशक : 'जीव' षड्विध संसारसमापन्नक जीवों के सम्बन्ध में वक्तव्यता-- 1. रायगिहे नगरे जाव एवं वदासी [1] राजगृह नगर में यावत् (श्री गौतमस्वामी ने) श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार पूछा 2. फतिबिहा णं भते ! संसारसमावन्नगा जीवा पण्णता ? गोयमा ? छवियाहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा। [संग्रहणी गाथा—जीवा छब्धिह पुढवी जीवाण ठिती, भवद्विती काए। निल्लेवण अणगारे किरिया सम्मत मिच्छत्ता // ]' सेवं भंते ! सेवं भंते ति ! // सत्तम सए : चउत्थो उद्दे सो समत्तो / [2 प्र.] भगवन् ! संसारसमापन्नक (संसारी) जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [2 उ.] गौतम ! संसारसमापन्नक जीव, छह प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं(१) पृथ्वीकायिक, (2) अप्कायिक, (3) तेजस्कायिक, (4) वायुकायिक, (5) वनस्पतिकायिक एवं (6) सकायिक / इस प्रकार यह समस्त वर्णन जीवाभिगमसूत्र के तिर्यञ्चसम्बन्धी दूसरे उद्देशक में कहे अनुसार सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया पर्यन्त कहना चाहिए / [संग्रहणी गाथा का अर्थ-जीव के छह भेद, पृथ्वीकायिक जीवों के छह भेद, पृथ्वीकायिक आदि जीवों की स्थिति, भवस्थिति, सामान्यकायस्थिति, निर्लेपन, अनगारसम्बन्धी वर्णन सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया / ] ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन—षड्विध संसारसमापन्नक जीवों के सम्बन्ध में जीवाभिगमसूत्रानुसार वक्तव्यता१. यह संग्रहणी गाथा वाचनान्तर में है, वृत्तिकार ने वृत्ति में इसे उद्धृत करके इसकी व्याख्या भी की है। देखें-भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 302-303 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org