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________________ 458] [घ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 56] तब मखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन यावत् प्ररूपण पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। बल्कि उस कथन के प्रति अश्रद्धा, अप्रतीति और अचि करता हुया वह उस तिल के पौधे के स पहँचा और उसकी तिलफली तोड़ी, फिर उसे हथेली पर मसल कर (उसमें से) सात तिल बाहर निकाले। तदनन्तर उस मंखलिपत्र गोशालक को उन सात तिलों को गिनते है अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुग्रा--सभी जीव इस प्रकार परिवृत्त्य-परिहार करते हैं (अर्थात्-- मर कर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं / ) हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह परिवत्तं (परिवर्त-परिहार-वाद) है और हे गौतम ! मुझसे (तेजोलेश्या-प्राप्ति की विधि जानने के बाद) मखलिपुत्र गोशालक का यह अपना (स्वेच्छा से) अपक्रमण (पृथक विचरण) है। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (55-56) में गोशालक द्वारा भगवान के साथ मिथ्या-प्रतिवाद करने का तथा भगवान का कथन सत्य सिद्ध हो जाने पर भी दराग्रहवश सर्वजीवों के परिव की मिथ्या मान्यता को लेकर भगवान से पृथक विचरण करने का प्रतिपादन है।' ___कठिनशब्दार्थ-खुडति-तोड़ता है / पम्फोडेइ-मसलता है। पउट्टपरिहारं--परिवृत्त होकर -- उसी (वनस्पति-शरीर) का परिहार–परिभोग (उत्पाद) करते हैं। आयाए... अपने से, स्वेच्छा से गोशालक स्वयं, अथवा (तेजलेश्याप्राप्ति का उपदेश) आदान--ग्रहण करके / अबक्कमणे----अपक्रमणपृथक् विचरण / 2 गोशालक का मिथ्या-आग्रह- भगवान् ने बताया था कि वनस्पतिकायिक जीव परिवृत्यमर कर परिहार करते हैं, अर्थात् मर कर वार-बार पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं, किन्तु गोशालक ने मिथ्याग्रहवश सभी जीवों के लिए एकान्त रूप से 'परिवृत्य-परिहारवाद' मान लिया। यह उसकी मिथ्या मान्यता थी। गोशालक को तेजोलेश्या की प्राप्ति, अहंकारवश जिन-प्रलाप एवं भगवान् द्वारा स्ववक्तव्य का उपसंहार 57. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छट्टछ?णं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्डू बाहाम्रो पगिज्झिय जाव विहरई / तए णं से गोसाले मंलिपुत्ते अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से जाते / [57] तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक नखसहित एक मुट्ठी में प्रावे, इतने उड़द के बाकलों से तथा एक चुल्लभर पानी से निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) के तपश्चरण के साथ दोनों बांहें ऊँची करके सूर्य के सम्मुख खड़ा रह कर पातापना-भूमि में यावत् अातापना लेने लगा। ऐसा करते हुए गोशालक को छह मास के अन्त में, संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्या प्राप्त हो गई। 1. वियाहपण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 703-704 2. (क) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2397 से 2399 (ख) भगवतो. अ. वत्ति, पत्र 666 3. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2399 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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