________________ 156] [व्याख्या प्रज्ञप्तिसूत्र [13 उ.] गौतम ! उनका एक अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध बन जाता है / यदि उसके विभाग किये जाएँ तो दो तीन यावत् दस, संख्यात, असंख्यात और अनन्त विभाग होते हैं / दो विभाग किये जाने पर एक पोर एक परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है / यावत् दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। तीन विभाग किये जाने पर- एक और पृथक्-पृथक् दो परमाणु पुद्गल और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / यावत् अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल, एक और एक असंख्यातप्रदेशी और एक और एक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओ पुदगल, एक अोर दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक मोर दो अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। इस प्रकार यावत् --अथवा एक ओर एक दशप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा एक अोर एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और एक और दो अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा तीन अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। चार विभाग किये जाने पर----एक ओर पृथक-पृथक तीन परमाणु-पुद्गल और एक अोर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है। इस प्रकार चतुष्कसंयोगी (से लेकर) यावत् असंख्यात-संयोगी तक कहना चाहिए / जिस प्रकार असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध के भंग कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ ये सब अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के भंग कहने चाहिए। विशेष यह है कि एक 'अनन्त' शब्द अधिक कहना चाहिए। यावत्-अथवा एक ओर संख्यात संख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर संख्यात असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा संख्यात अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / जब उसके असंख्यात भाग किये जाते हैं तो एक अोर पृथक्-पृथक असंख्यात परमाणु पुद्गल और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर असंख्यात द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं और एक अोर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है, यावत्--एक अोर असंख्यात संख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर असंख्यात असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा असंख्यात अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अनन्त विभाग किये जाने पर पृथक-पृथक् अनन्त-परमाणु पुद्गल होते हैं। विवेचन-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विभागीय विकल्प–अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विभाग के पहले तेरह विकल्प (भंग) कह कर फिर उत्तरोत्तर 12-12 विकल्प बढ़ाते जाना चाहिए / यथा-द्विसंयोगी 13, त्रिकसंयोगी 25, चतुष्कसंयोगी 37, पंचसंयोगी 49, षट्संयोगी 61, सप्तसंयोगी 73, अष्टसंयोगी 85, नवसंयोगी 67, दशसंयोगी 106 संख्यात-संयोगी 13, असंख्यात-संयोगी 13 और अनन्तसंयोगी ?, यो कुल मिला कर 576 भंग हुए।' 1. भगवती मूत्र अ. वृत्ति, पत्र 566-667 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org