________________ नवमाइअट्ठावीसइमपज्जंता उद्देसगा नौवें से अट्ठाईसवे उद्देशक पर्यन्त 1. जहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा भाणियन्वा निरवसेसा, नवरं नेरइयाणं उववातो जहा वालुयप्पभाए / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः / 41 / 9-12 // [1] कृष्णलेश्या वाले जीवों के अनुसार नीललेश्यायुक्त जीवों के भी पूर्ण चार उद्देशक कहने चाहिए / विशेष में, नैरयिकों के उपपात का कथन वालुकाप्रभा के समान जानना चाहिए / शेष सब पर्ववत् है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 419-12 / / 2. काउलेस्सेहि वि एवं चेव अत्तारि उद्देसगा कायम्या, नवरं नेरयियाणं उववातो जहा रयणप्पभाए / सेसंत चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०॥४१ / 13-16 // [2] इसी प्रकार कापोतलेश्या-सम्बन्धी भी चार उद्देशक कहने चाहिए / विशेष नैरयिकों का उपपात रत्नप्रभापृथ्वी के समान जानना चाहिए। शेष पूर्ववत् / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं', इत्यादि पूर्ववत् / / 41 / 13-16 // 3. तेउलेस्सरासीजुम्मकडजुम्मनसुरकुमारा गं भंते ! कतो उववज्जति ? एवं चेव, नवरं जेसु तेउलेस्सा अस्थि तेसु भाणियन्वं / एवं एए वि कण्हलेस्ससरिसा चत्तारि उद्देसगा कायस्वा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 41 / 17-20 / / [3 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वाले राशियुग्म-कृतयुग्मरूप असुरकुमार कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना, किन्तु जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती हो, उन्हीं के जानना / इस प्रकार ये भी कृष्ण लेश्या-सम्बन्धी चार उद्देशक कहना चाहिए। ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 41 / 17-20 / / 4. एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा / पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वेमाणियाण य एतेसि पम्हलेस्सा, सेसाणं नस्थि / सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति० // 41 / 21.24 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org