________________ सप्तम शतक : उद्देशक-] / 157 [27 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के असातावेदनीय कर्म बंधते हैं ? [27 उ.] हाँ गौतम ! बंधते हैं। 28. कहं णं भंते ! जीवाणं अस्सायावेणिज्जा कम्मा कज्जति ? गोयमा ! परदुक्खणयाए परसोयणयाए परजूरणयाए परतिप्पणयाए परपिट्टणयाए परपरितावणयाए, बहूर्ण पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणताए सोयणयाए जाव परितावणयाए, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं असातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति / [28 प्र.] भगवन् ! जीवों के असातावेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? [28 उ.] गौतम ! दूसरों को दुःख देने से, दूसरे जीवों को शोक उत्पन्न करने से, जीवों को विषाद या चिन्ता उत्पन्न करने से, दूसरों को रुलाने या विलाप कराने से, दूसरों को पीटने से और जीवों को परिताप देने से, तथा बहुत-से प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्वों को दुःख पहुँचाने से, शोक उत्पन्न करने से यावत् उनको परिताप देने से (जीवों के असातावेदनीय कर्मबन्ध होता है / ) हे गौतम इस प्रकार से जीवों के प्रसातावेदनीय कर्म बंधते हैं। 26. एव नेरतियाण वि। [26] इसी प्रकार नैरयिकजीवों के (असातावेदनीय कर्मबन्ध के विषय में समझना चाहिए। 30. एव जाव देमाणियाणं / [30] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त (असातावेदनीयबन्धविषयक) कथन करना चाहिए। विवेचन--चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के साता-प्रसातावेदनीय कर्मबन्ध और उनके कारणप्रस्तुत पाठ सूत्रों (23 से 30 तक) में समस्त जीवों के सातावेदनीय एवं असातावेदनीय कर्मबन्ध तथा इनके कारणों का निरूपण किया गया है / कठिन शब्दों के प्रर्थ---असोयणयाए= शोक उत्पन्न न करने से / अजरणयाए जिससे शरीर छीजे, ऐसा विषाद या शोक पैदा न करने से / प्रतिप्पणयाए-आंसू बहैं, इस प्रकार का विलाप या रुदन न कराने से / अपिट्टणयाए मारपीट न करने से / ' दुषमदुषमकाल में भारतवर्ष, भारतभूमि एवं भारत के मनुष्यों के प्राचार (आकार) और भाव के स्वरूप-निरूपरण __31. जंबुद्दीवेणं भते ! दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणोए दुस्समदुस्समाए समाए उत्तमकदुपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सति ? गोयमा! काले भविस्सति हाहाभूते भंभाभूए कोलाहलभूते, समयाणुभावणं य णं खरफल्सधूलिमहला दुविसहा बाउला भयंकरा बाता संवट्टमा य बाइंति, इह अभिषखं धूमाहिति य दिसा 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 305 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org