________________ 156] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कर्कशवेदनीय और अकर्कशवेदनीय कर्मबन्ध कैसे, और कब ?..-जीवों के कर्कशवेदनीय कर्म बंध जाते हैं, उनका पता तब लगता है, जब वे उदय में आते हैं, भोगने पड़ते हैं, क्योंकि कर्कशवेदनीय कर्म भोगते समय अत्यन्त दुःखरूप प्रतीत होते हैं। जैसे स्कन्दक आचार्य के शिष्यों ने पहले किसी भव में कर्कशवेदनीय कर्म बांधे थे। अकर्कशवेदनीय कर्म भोगने में सुखरूप प्रतीत होते हैं, जैसे कि भरत चक्री आदि ने बांके थे / कर्कशवेदनीय को बांधने का कारण 18 पापस्थानक-सेवन और अकर्कशवेदनीय-कर्मबन्ध का कारण इन्हीं 18 पापस्थानों का त्याग है / नरकादि जीवों में प्राणातिपात आदि पापस्थानों से विरमण न होने से वे अकर्कशवेदनीय-कर्मबन्ध नहीं कर सकते।' चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के साता-असाता वेदनीय कर्मबन्ध और उनके कारण 23. अस्थि गं भंते ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता, अस्थि / [23 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं ? [23 उ.] हाँ, गौतम ! बंधते हैं। 24. कहं गं भंते ! जोवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कति ? गोयमा! पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए, बहूणं पाणाणं जान सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरितावणयाए; एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति / / [24 प्र.] भगवन् ! जीवों के सातावेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? [24 उ.] गौतम ! प्राणों पर अनुकम्पा करने से, भूतों पर अनुकम्पा करने से, जीवों के प्रति अनुकम्पा करने से और सत्त्वों पर अनुकम्पा करने से; तथा बहुत-से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख न देने से, उन्हें शोक (दैन्य) उत्पन्न न करने से, (शरीर को सुखा देने वाली) चिन्ता (विषाद या खेद) उत्पन्न न कराने से, विलाप एवं रुदन करा कर प्रांसू न बहवाने से, उनको न पीटने से, उन्हें परिताप न देने से (जोबों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं।) हे गौतम ! इस प्रकार से जीवों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं। 25. एवं नेतियाण वि। [25] इसी प्रकार नैरयिक जीवों के (भी सातावेदनीय कर्मबन्ध के) विषय में कहना चाहिए। 26. एवं जाव वैमाणियाणं ! [26] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए। 27. अस्थि णं भंते ! जीवाणं असातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता, अस्थि। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 305 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org