________________ सप्तम शतक ; उद्देशक-६! [155 17. अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं कसबेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? एवं चेव / [17 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीवों के कर्कशवेदनीय कर्म बंधते हैं ? [17 उ.] हाँ, गौतम ! पहले कहे अनुसार बंधते हैं / 18. एवं जाव वैमाणियाणं / [18] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। 16. अस्थि णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेदणिज्जा कम्मा कति ? हंता, अस्थि। [16 प्र. भगवन् ! क्या जीवों के अकर्कशवेदनीय (सुखपूर्वक भोगने योग्य) कर्म बंधते हैं ? [16 उ.] हाँ गौतम ! बंधते हैं। 20. कहं णं भंते ! जीवाणं प्रकक्कसवेदणिज्जा कम्मा कति ? गोयमा ! पाणातिवातवेरमणेणं जाव परिगहवरमणेणं कोहविवेगेणं जाव मिच्छादसणसल्लविवेगेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अकक्कसवेदणिज्जा कम्मा कज्जति / [20 प्र.] भगवन् ! जीवों के प्रकर्कशवेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? [20 उ.] गौतम ! प्राणातिपातविरमण से यावत् परिग्रह-विरमण तक से, इसी तरह क्रोधविवेक से (लेकर) यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक से (जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म बंधते हैं 1) हे गौतम ! इस प्रकार से जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म बंधते हैं। 21. अस्थि णं भंते ! नेरतियाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? गोयमा ! णो इण? सम? / [21 प्र] भगवन् ! क्या नैरयिक जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म बंधते हैं ? [21 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (अर्थात्-नैरयिकों के अकर्कशवेदनीय कर्मों का बन्ध नहीं होता!) 22. एवं जाव बेमाणिया / नवरं मणुस्साणं जहा जीवाणं (सु. 16) / [22] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए / परन्तु मनुष्यों के विषय में इतना विशेष है कि जैसे औधिक जीवों के विषय में कहा गया है, वैसे ही सारा कथन करना चाहिए। विवेचन -समस्त जीवों के कर्कश-प्रकर्कश वेदनीय कर्मबन्ध का हेतुपूर्वक निरूपण-प्रस्तुत 8 सूत्रों (सू. 15 से 22 तक) में समुच्चय जीवों और चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के कर्कशवेदनीय नाय कमबन्ध के सम्बन्ध में सहेतुक निरूपण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org