________________ 200 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समुद्घात-वेदना आदि के साथ एकाकार (लीन या संमिश्रित) हुए आत्मा का कालान्तर में उदय में आने वाले (आत्मा से सम्बद्ध) वेदनीय ग्रादि कर्मों को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर प्रबलतापूर्वक घात करना-उनकी निर्जरा करना समुद्घात कहलाता है। आत्मा समद्घात क्यों करता है ? ---जैसे किसी पक्षी को पाँखों पर बहुत धूल चढ़ गई हो, तब वह पक्षी अपनी पाँखें फैला (फड़फड़ा) कर उस पर चढ़ी हुई धूल झाड़ देता है, इसी प्रकार यह प्रात्मा, बद्ध कर्म के अणों को झाड़ने के लिए समदघात नाम की क्रिया करता है। प्रात्मा असंख्यप्रदेशी होकर भी नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर-परिमित होता है। आत्मीय प्रदेशों में संकोचविकासशक्ति होने से जीव के शरीर के अनुसार वे व्याप्त होकर रहते हैं। प्रात्मा अपनी विकास शक्ति के प्रभाव से सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हो सकता है / कितनी ही बार कुछ कारणों से प्रात्मा अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर भी फैलाता है और वापिस सिकोड़ (समेट) लेता है। इसी क्रिया को जैनपरिभाषा में समुद्घात कहते हैं / ये समुद्घात सात हैं / 1. वेदनासमदघात-वेदना को लेकर होने वाले समुद्धात को वेदनासमुद्घात कहते हैं, यह असातावेदनीय कर्मों को लेकर होता है। तात्पर्य यह है कि वेदना से जब जीव पीड़ित हो, तब वह अनन्तानन्त (सातावेदनीय) कर्मस्कन्धों से व्याप्त अपने प्रात्मप्रदेशों को शरीर से बाहर के भाग में भी फैलाता है। वे प्रदेश मुख, उदर आदि के छिद्रों में, तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालों में भरे रहते हैं। तथा लम्बाई-चौड़ाई (विस्तार) में शरोरपरिमित क्षेत्र में व्याप्त होते हैं / जीव एक अन्तर्मुहूर्त तक इस अवस्था में ठहरता है। उस अन्तर्मुहूर्त में वह असातावेदनीय कर्म के प्रचुर पुद्गलों को (उदीरणा से खींचकर उदयापलिका में प्रविष्ट करके वेदता है, इस प्रकार) अपने पर से झाड़ देता (निर्जरा कर लेता) है / इसी क्रिया का नाम वेदनासमुद्घात है। 2. कषायसमुद्धात-क्रोधादि कषाय के कारण मोहनीयकर्म के आश्रित होने वाले समुद्घात को कषायसमुद्घात कहते हैं। अर्थात् तीव्र कषाय के उदय से ग्रस्त जीव जब क्रोधादियुक्त दशा में होता है, तब अपने आत्मप्रदेशों को बाहर फैलाकर तथा उनसे मुख, पेट ग्रादि के छिद्रों में एवं कान तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालों में भर कर शरीर परिमित लम्बे व विस्तत क्षेत्र में व्याप्त होकर जीव अन्तमुहूर्त तक रहता है, उतने समय में प्रचुर कषाय-पुद्गलों को अपने पर से झाड़ देता हैनिर्जरा कर लेता है / वही क्रिया कषायसमुद्घात है। 3. मारणान्तिक-समद्धात-मरणकाल में अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट प्रायुकर्म के प्राश्रित होने वाले समुद्घात को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। आयुष्य (कर्म) भोगते-भोगते जब अन्तर्मुहूर्त भर आयुष्य शेष रहता है, तब अपने प्रात्मप्रदेशों को बाहर निकालता है। वे प्रदेश मुख और उदर के छिद्रों तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तराल में भर कर विष्कम्भ (घेरा) और मोटाई में शरीर की अपेक्षा कम से कम अंगुल के असंख्यात भाग जितनी मोटी और अधिक से अधिक असंख्य योजन मोटी जगह में व्याप्त होकर जीव अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, उतने समय में आयुष्यकर्म के प्रभूत पुद्गलों को अपने पर से झाड़ कर आयुकर्म की निर्जरा कर लेता है, इसी क्रिया को मारणान्तिक-समुद्घात कहते हैं। 4. वैक्रिय-समुद्घात–विक्रियाशक्ति का प्रयोग प्रारम्भ करने पर वैक्रियशरीरनामकम के आश्रित होने वाला समुद्घात / वैक्रिय लब्धि वाला जीव अपने जीर्ण प्रायः शरीर को पुष्ट एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org