________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-२] [201 सुन्दर बनाने की इच्छा से अपने आत्मप्रदेशों को बाहर एक दंड के आकार में निकालता है / उस दण्ड को चोड़ाई प्रोर मोटाई तो अपने शरोर जितनो हो होने देता है, किन्तु लम्बाई : संख्येय योजन करके वह अन्तर्मुहूर्त तक टिकता है और उतने समय में पूर्वबद्व वैक्रियशरीर नामकर्म के स्थूलपुद्गलों को अपने पर से झाड़ देता है और अन्य नये तथा सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है / यही वैक्रिय-समुद्बात है। 5. तेजस्समुद्घात-तपस्वियों को प्राप्त होने वाली तेजोलेश्या (नाम को विभूति) का जब विनिर्गम होता है, तब 'तैजस-समुद्घात' होता है, जिसके प्रभाव से तेजस् शरीर नामकर्म के पुद्गल आत्मा से अलग होकर बिखर जाते हैं। अर्थात्-तेजोलेश्या को लब्धि वाला जीव 7-8 कदम पीछे हटकर घेरे और मोटाई में शरीरपरिमित और लम्बाई में संख्येय योजन परिमित जीवप्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकालकर क्रोध के वशीभूत होकर जीवादि को जलाता है और प्रभूत तेजस् शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। 6. आहारक-समघात-चतुर्दशपूर्वधर साधु का प्राहारक शरीर होता है। आहारक लब्धिधारी साधु आहारक शरीर की इच्छा करके विष्कम्भ और मोटाई में शरीरपरिमित और लम्बाई में संख्येय योजन परिमित अपने आत्मप्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर पूर्वबद्ध एवं अपने पर रहे हुए प्राहारक-शरीर नामकर्म के पुद्गलों को झाड़ देता (निर्जरा कर लेता) है। 7. केवलि-समुद्घात–अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवली भगवान् के समुद्घात को केवलिसमुद्घात कहते हैं। वह वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म को विषय करता है। अन्तमुहर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवलज्ञानी अपने अघाती कर्मों को सम करने के लिए, यानी वेदनीय, नाम, गोत्र, इन तीन कर्मों की स्थिति को प्रायुकर्म के बराबर करने के लिए यह समुद्घात करते हैं, जिसमें केवल 8 समय लगते हैं / ' स्पष्टता के लिए पृष्ठ 202 को टिप्पणी देखिए 1. (क) भगवती-सूत्र टीकानुवाद (पं. बेघरदास) भा. 1, पृ. 262 से 264. (ख) प्रज्ञापना, पृ. टीका मलयगिरि. 793-94 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org