________________ पंचम शतक : उद्देशक-५ [4] इसी प्रकार यावत् वैमानिक-(दण्डक) पर्यन्त संसार मण्डल (संसारी जीवों के समूह) के विषय में जानना चाहिए। __ विवेचन-समस्त प्राणियों द्वारा एवम्भूत-अनेवम्भूतवेदन-सम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों में जीवों द्वारा कर्मफलवेदन के विषय में क्रमश: चार तथ्यों का निरूपण, शास्त्रकार ने किया है (1) अन्यतीथिकों का मत यह है कि सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व एवम्भूत वेदना वेदते हैं। (2) तीर्थंकर भगवन् महावीर का कथन यह है कि यह मान्यता यथार्थ नहीं है / कतिपय जीव एवम्भूत वेदना वेदते हैं और कतिपय जीव अनेवंभूत वेदना वेदते हैं। (3) इसका करण यह है कि जो प्राणी, जैसे कर्म किये हैं उसी प्रकार से असातावेदनीयादि कर्म का उदय होने पर वेदना को वेद (भोग)ते हैं, वे एवम्भूतवेदनावेदक होते हैं, इससे विपरीत जो कर्मबन्ध के अनुसार वेदना का वेदन नहीं करते, वे अनेवम्भूतवेदनावेदक होते हैं / (4) यही प्ररूपणा नैरयिकों के दण्डक से लेकर वैमानिकदण्डक-पर्यन्त समस्त संसारी जीवों के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। एवम्भूतवेदन और अनेवम्भूतवेदन का रहस्य-जिन प्राणियों ने जिस प्रकार से कर्म बांधे हैं, उन कर्मों के उदय में प्राने पर वे उसी प्रकार से असाता आदि वेदना भोग लेते हैं, उनका वह वेदन एवम्भूतवेदनावेदन है, किन्तु जो प्राणी जिस प्रकार से कर्म बांधते हैं, उसी प्रकार से उनके फलस्वरूप वेदना नहीं वेदते, उनका वह वेदन–अनेवम्भूतवेदना बेदन है। जैसे--कई व्यक्ति दीर्घकाल में भोगने योग्य आयुष्य प्रादि कर्मों की उदीरणा करके अल्पकाल में ही भोग लेते हैं, उनका वह वेदन अनेवम्भूत वेदना-वेदन कहलाएगा। अन्यथा, अपमृत्यु (अकालमृत्यु) का अथवा युद्ध आदि में लाखों मनुष्यों का एक साथ एक ही समय में मरण कैसे संगत होगा! आगमोक्त सिद्धान्त के अनुसार जिन जीवों के जिन कर्मों का स्थितिघात, रसघात प्रकृतिसंक्रमण आदि हो जाते हैं, वे अनेवम्भूत वेदना वेदते हैं, किन्तु जिन जीवों के स्थितिघात, रसघात आदि नहीं होते, वे एवम्भूत वेदना वेदते हैं। अवसपिरणीकाल में हर कुलकर तीर्थंकरादि की संख्या का निरूपण [[५.प्र.] जंबुद्दीवे णं भते ! इह भारहे वासे इमोसे उस्सप्पिणीए समाए कइ कुलगरा होत्था ? [5. उ.] गोयमा ! सत्त। [5 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में, इस भारतवर्ष में, इस अवसर्पिणी काल में कितने कुलकर 1. पियापण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 204 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 225 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org