________________ 458] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मैं यों कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एवंभूत वेदना वेदते हैं और कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, अनेवंभूत (जिस प्रकार से कर्म बांधा है, उससे भिन्न प्रकार से) वेदना वेदते हैं / [2] से केण?णं प्रत्येगइया० तं चेव उच्चारेयन्वं / गोयमा ! जे गं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति ते ण पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदंति / जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा नो तहा वेदणं वेदेति ते णं पाणा भूया जीवा सत्ता प्रणेवभूयं वेदणं वेदेति / से तेणटणं. तहेव / [2-2 प्र] 'भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है, कि कितने ही प्राण भूत आदि एवंभूत और कितने ही अनेवंभूत वेदना वेदते हैं ? [2-2 उ] गौतम ! जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, जिस प्रकार स्वयं ने कर्म किये हैं, उसी प्रकार वेदना वेदते हैं (उसी प्रकार उदय में आने पर भोगते-अनुभव करते हैं, वे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एवंभूत वेदना वेदते हैं किन्तु जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, जिस प्रकार कर्म किये हैं, उसी प्रकार वेदना नहीं वेदते (भिन्न प्रकार से वेदन करते हैं) वे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अनेवंभूत वेदना वेदते हैं / इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि कतिपय प्राण भूतादि एवम्भूत वेदना वेदते हैं और कतिपय प्राण भूतादि अनेवंभूत वेदना वेदते हैं। 3. [1] नेरतिया णं भते ! कि एवंभूतं वेदणं वेदेति ? अणेवंभूयं वेवणं वेदेति ? गोयमा ! नेरइया णं एवंभूयं पि वेदणं वेदेति, प्रणेवंभूयं पि वेदणं वेदेति / [3-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या एवम्भूत वेदना वेदते हैं, अथवा अनेवम्भूत वेदना वेदते हैं? 63-1 उ] गौतम ! नैरयिक एवम्भूत वेदना भी वेदते हैं और अनेवम्भूत वेदना भी वेदते हैं। [2] से केपट्टणं० 1 तं चेव / गोयमा ! जे गं ने रइया जहा कडा कम्मा तहा वेयणं वेदेति ते णं नेरइया एवंभूयं वेदणं वेदेति / जे णं नेरतिया जहा कडा कम्मा णो तहा वेदणं वैर्देति ते गं मेरइया प्रणेवंभूयं वेदणं वेदेति / से तेणढणं० / [3-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? (पूर्ववत् सारा पाठ यहाँ कहना चाहिए / ) [3-2 उ.] गौतम ! जो नैरयिक अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वेदना वेदते हैं वे एवम्भूत वेदना वेदते हैं और जो नैरयिक अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वेदना नहीं वेदते ; (अपितु भिन्न प्रकार से वेदते हैं; ) वे अनेवम्भूत वेदना वेदते हैं। 4. एवं जाव वेमाणिया / संसारमंडल नेयव्वं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org