________________ पंचमो उद्देसओ : 'छउमत्थ' पंचम उद्देशक : 'छद्मस्थ' छद्मस्थ मानव सिद्ध हो सकता है, या केवली होकर ? : एक चर्चा 1. छउमत्थे गंभ'ते ! मणूसे तोयमणतं सासतं समय केवलेणं संजमेणं० ? जहा पढमसए चउत्थुद्देसे आलावगा तहा नेयव्वं जाव 'प्रलमत्थं त्ति वत्तव्वं सिया। [1 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य शाश्वत, अनन्त, अतीत काल (भूतकाल) में केवल संयम द्वारा सिद्ध हुआ है ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में कहा है, वैसा ही आलापक यहाँ भी कहना चाहिए; (और वह) यावत् 'अलमस्तु' कहा जा सकता है। यहाँ तक कहना चाहिए / विवेचन-छदमस्थ मानव सिद्ध हो सकता है, या केवली होकर ? प्रस्तुत सूत्र में छद्मस्थ मनुष्य केवल संयम द्वारा सिद्ध (मुक्त) हो सकता है या केवली होकर ही सिद्ध हो सकता है। यह प्रश्न उठाकर प्रथम शतकीय चतुर्थ उद्देशक में प्ररूपित समाधान का अतिदेश किया गया है / वहाँ संक्षेप में यही समाधान है कि केवलज्ञानी हुए बिना कोई भी व्यक्ति सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वदुःखान्तकर, परिनिर्वाण प्राप्त, उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधर, जिन, अर्हत् केवली और 'अलमस्तु' नहीं हो सकता।" समस्त प्राणियों द्वारा एवम्भूत-अनेवम्भूतवेदन सम्बन्धी प्ररूपरणा 2. [1] अन्नउत्थिया णं भाते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेति सम्वे पाणा सव्वे भूया सध्वे जीवा सन्वे सत्ता एवंभूयं वेवणं वेति, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जं णं अन्नउस्थिया एवमाइक्खंति जाव वेदेति, जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव पवेमि-प्रत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति, प्रत्येगइया पाणा भूया जीवा सत्ता प्रणेवंभूयं वेदणं वेदेति / [२-१प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि समस्त प्राण, समस्त भूत, समस्त जीव और समस्त सत्त्व, एवंभूत (जिस प्रकार कर्म बांधा है, उसी प्रकार) वेदना वेदते (भोगते - अनुभव करते हैं, भगवन् ! यह ऐसा कैसे है ? [2-1 उ.] गौतम ! वे अन्यतीर्थिक जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व एवंभूत वेदना वेदते हैं, उन्होंने यह मिथ्या कथन किया है / हे गौतम ! 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति (ख) भगवतीसूत्र प्रथम शतक चतुर्थ उद्देशक, सू. 159 से 163 तक (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) प्रथमखण्ड पृ. 137-138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org