________________ 460] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5 उ.] गौतम ! (जम्बूद्वीप में, इस भारतवर्ष में, इस अवसर्पिणी काल में) सात कुलकर हुए हैं। 6. एवं चेव तित्थयरमायरो, पियरो, पढमा सिस्सिणीनो, चक्कवट्टिमायरो, इस्थिरयणं, बलदेवा, वासुदेवा वासुदेवमायरो, पियरो, एएसि पडिसत्तू जहा समवाए णामपरिवाडीए तहा यचा।' सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। ॥पंचम सए : पंचमो उद्देसनो समत्तो / _ [6] इसी तरह तीर्थंकरों की माता, पिता, प्रथम शिष्याएँ, चक्रवत्तियों की माताएँ, स्त्रीरत्न, बलदेव, वासुदेव, वासुदेवों के माता-पिता, प्रतिवासुदेव आदि का कथन जिस प्रकार 'समवायांगसूत्र में नाम की परिपाटी में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए।] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् विचरने लगे। विवेचन–अवसपिणीकाल में हुए कुलकर-तीर्थकरादि की संख्या का निरूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों में भरतक्षेत्र में हुए कुलकर तथा तीर्थकरमाता आदि की संख्या का प्रतिपादन समवायांगसूत्र के अतिदेशपूर्वक किया गया है। ___ कुलकर अपने-अपने युग में जो मानवकुलों की मर्यादा निर्धारित करते हैं, वे कुलकर कहलाते हैं। वर्तमान अवसर्पिणीकाल में हुए 7 कुलकर ये हैं-(१) विमलवाहन, (2) चक्षुषमान, (3) यशस्वान् (4) अभिचन्द्र (5) प्रसेनजित (6) मरुदेव और (7) नाभि / इनकी भार्याओं के नाम क्रमश: ये हैं-(१) चन्द्रयशा, (2) चन्द्रकान्ता, (3) सुरूपा, (4) प्रतिरूपा, (5) चक्षुष्कान्ता, (6) श्रीकान्ता और (7) मरुदेवी / ___चौबीस तीर्थंकरों के नाम- (1) श्रीऋषभदेव (आदिनाथ) स्वामी, (2) श्रीअजितनाथ स्वामी (3) श्रीसम्भवनाथस्वामी, (4) श्रीअभिनन्दनस्वामी, (5) श्रीसुमतिनाथस्वामी, (6) श्रीपद्मप्रभ-स्वामी, (7) श्रीसुपार्श्वनाथस्वामी (8) श्रीचन्द्रप्रभस्वामी, (9) श्रीसुविधिनाथस्वामी (पुष्पदन्तस्वामी), (10) श्रीशीतलनाथस्वामी, (11) श्रीश्रेयांसनाथस्वामी, (12) श्रीवासुपूज्यस्वामी, (13) श्रीविमलनाथस्वामी, (14) श्रीअनन्तनाथस्वामी, (15) श्री धर्मनाथस्वामी, (16) श्रीशान्तिनाथस्वामी, (17) श्रीकुन्थुनाथ स्वामी, (18) श्रीअरनाथस्वामी, 1. यह पाठ प्रागमोदय समिति से प्रकाशित भगवतीसूत्र की अभयदेवसूरीयवृत्ति में नहीं है, वहाँ वृत्तिकार ने इस पाठ का संकेत अवश्य किया है-'अथवा इह स्थाने बाचनान्तरे कुलकर-तीर्थकरादि-वक्तव्यता दृश्यते (अथवा इस स्थान में अन्य वाचना में कुल कर-तीर्थकर आदि की वक्तव्यता दृष्टिगोचर होती है)। यही कारण है कि भगवती. टीकानूवाद-टिप्पणयुक्त खण्ड 2, पृ. 195, तथा भगवती. हिन्दी विवेचनयुक्त भा. 2, पृ. 836 में यह पाठ और इसका अनुवाद दिया गया है। -सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org