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________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को क्षधा की वेदना तथा ताड़ना और क्षेत्र आदि से उत्पन्न पीड़ा भी अधिक होती है, इस कारण उन्हें श्वासोच्छ्वास भी अधिक लेना होता है / नारक : अल्पकर्मी एवं महाकर्मी-जो नारक पहले उत्पन्न हो चुके, उन्होंने नरक का आयुष्य तथा अन्य कर्म बहुत-से भोग लिये हैं, अतएव उनके बहुत-से कर्मों की निर्जरा हो चुकी है, इस कारण बे अल्पकर्मी हैं। जो नारक बाद में उत्पन्न हुए हैं, उन्हें प्रायु और सात कर्म बहुत भोगने बाकी हैं, इसलिए वे महाकर्मी (बहुत कर्म वाले) हैं। यह सूत्र समान स्थिति वाले नैरयिकों की अपेक्षा से समझना चाहिए / यही बात वर्ण और लेश्या (भावलेश्या) के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। संज्ञिभूत-असंज्ञिभूत-वृत्तिकार ने संज्ञिभूत के चार अर्थ बताए हैं-(१) संज्ञा का अर्थ हैसम्यग्दर्शन; सम्यग्दर्शनी जीव को संज्ञी कहते हैं। जिस जीव को संज्ञीपन प्राप्त हुआ, उसे संशिभूत (सम्यग्दृष्टि) कहते हैं। (2) अथवा संज्ञिभूत का अर्थ है-जो पहले असंज्ञी (मिथ्यादृष्टि) था, और अब संज्ञी (सम्यग्दष्टि हो गया है, अर्थात-जो नरक में ही मिथ्यात्व को छोडकर सम्यग्दष्टि हुआ है, वह संज्ञी संज्ञिभूत कहलाता है / असंज्ञीभूत का अर्थ मिथ्यादृष्टि है / (3) एक आचार्य के मतानुसार संज्ञिभूत का अर्थ संज्ञी पंचेन्द्रिय है। अर्थात्-जो जीव नरक में जाने से पूर्व संज्ञी पंचेन्द्रिय था, उसे संज्ञिभूत कहा जाता है / नरक में जाने से पूर्व जो असंज्ञी था, उसे यहाँ असंज्ञिभूत कहते हैं / अथवा संजिभूत का अर्थ पर्याप्त और असंज्ञिभूत का अर्थ अपर्याप्त है / उक्त सभी अर्थों की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि संज्ञिभूत को नरक में तीव्र वेदना होती है और असंज्ञिभूत को अल्प / संज्ञिभूत (सम्यग्दृष्टि) को नरक में जाने पर पूर्वकृत अशुभ कर्मों का विचार करने से घोर पश्चात्ताप होता है—'अहो ! मैं कैसे घोर संकट में प्रा फंसा ! अर्हन्त भगवान् के सर्वसंकट-निवारक एवं परमानन्ददायक धर्म का मैंने आचरण नहीं किया, अत्यन्त दारुण परिणामरूप कामभोगों के जाल में फंसा रहा, इसी कारण यह अचिन्तित आपदा आ पड़ी है। इस प्रकार की मानसिक वेदना के कारण वह महावेदना का अनुभव करता है। असंज्ञिभूत-मिथ्यादृष्टि को स्वकृत कर्मफल के भोग का कोई ज्ञान या विचार तथा पश्चात्ताप नहीं होता, और न ही उसे मानसिक पीडा होती है। इस कारण असंज्ञितभूत नैरयिक अल्पवेदना का अनुभव करता है। इसी प्रकार संज्ञिभूत यानी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव में तीन अशुभ परिणाम हो सकते हैं. फलतः वह सातवीं नरक तक जा सकता है। जो जीव आगे की नरकों में जाता है, उसे अधिक वेदना होती है / असंज्ञिभूत (नरक में जाने से पूर्व असंज्ञी) जीव रत्नप्रभा के तीव्रवेदनारहित स्थानों में उत्पन्न होता है, इसलिए उसे अल्पवेदना होती है / इसी प्रकार संज्ञीभूत अर्थात्-पर्याप्त को महावेदना और असंज्ञीभूत अर्थात् अपर्याप्त को अल्पवेदना होती है। क्रिया-यहाँ कर्मबन्धन के कारण अर्थ में यह शब्द प्रयुक्त है। यद्यपि मिथ्यात्व, अविरति,प्रमाद, कषाय और योग ये पांचों कर्मबन्धन के कारण हैं, तथापि प्रारम्भ और परिग्रह योग के अन्तर्गत होने से प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी क्रिया भी कर्मबन्धन का कारण बनती है। आय और उत्पत्ति की दृष्टि से नारकों के 4 भंग-(१) समायुष्क समोपपन्नक—उदाहरणार्थ-जिन जीवों ने 10 हजार वर्ष की नरकायु बाँधी और वे एक साथ नरक में उत्पन्न हुए; (2) समायुष्क-विषमोपपन्नक-जिन जीवों ने 10 हजार वर्ष की नरकायु बाँधी, किन्तु उनमें से कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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