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________________ 162] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! प्रोसन्नं नरग-तिरिक्ख-जोणिएसु उववजिहिति / [35 प्र.] भगवन् ! वे (उस समय के) शीलरहित, गुणरहित, मर्यादाहीन, प्रत्याख्यान (त्याग-नियम) और पोषधोपवास से रहित, प्रायः मांसाहारी, मत्स्याहारी, क्षुद्राहारी (अथवा मधु का आहार करने वाले अथवा भूमि खोद कर कन्दमूलादि का आहार करने वाले) एवं कुणिमाहारी (मृतक का मांस खाने वाले) मनुष्य मृत्यु के समय मर (काल) कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे ? [35 उ.] गौतम ! वे (पूर्वोक्त प्रकार के) मनुष्य मर कर प्रायः (नरक और तिर्यञ्चगति में जाएँगे, और) नरक एवं तिर्यञ्च-योनियों में उत्पन्न होंगे। 36, ते णं भाते ! सोहा बग्घा विगा दीविया अच्छा तरच्छा परस्सरा णिस्सीला तहेव जाब कहि उवजिहिति ? गोयमा ! प्रोसन्नं नरग-तिरिक्खजोणिएसु उबवजिहिति / [36 प्र.] भगवन् ! (उस काल और उस समय के) निःशील यावत् कुणिमाहारी सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िये), द्वीपिक (चीते, अथवा गेंडे), रोछ (भालू), तरक्ष (जरख) और शरभ (गेंडा) आदि (हिंस्र पशु) मृत्यु के समय मर कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे? [36 उ.] गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होंगे। 37. ते णं मते ! ढंका कंका विलका मदुगा सिही णिस्सीला ? तहेव जाव प्रोसन्न नरग-तिरिक्खजोणिएसु उववजिहिति / सेव भते ! सेव भंते ! ति। // सत्तम सए : छुट्टो उसनो समत्तो॥ [37 प्र.) भगवन् ! (उस काल और उस समय के) निःशील आदि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त ढंक (एक प्रकार के कौए), कंक, विलक, मद्गुक (जलकाक-जलकौए), शिखी (मोर) (आदि पक्षी मर कर कहाँ उत्पन्न होंगे ?) 37 उ.] गौतम ! (वे उस काल के पूर्वोक्त पक्षीगण मर कर) प्रायः नरक एवं तिर्यच योनियों में उत्पन्न होंगे। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर श्री गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन--छठे भारे के मनुष्यों के साहार तथा मनुष्य-पशुपक्षियों के प्राचार प्रादि के अनुसार मरणोपरान्त उत्पत्ति का वर्णन-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 34 से 37 तक) में से प्रथम में छठे आरे के मनुष्यों की प्राहारपद्धति का तथा प्रागे के तीन सूत्रों में क्रमश: उस काल के निःशीलादि मानवों, पशुओं एवं पक्षियों को मरणोपरान्त गति-योनि का वर्णन किया गया है। निष्कर्ष-उस समय के मनुष्यों का आहार प्रायः मांस, मत्स्य और मृतक का होगा। मांसाहारी होने से वे शील, गुण, मर्यादा, त्याग-प्रत्याख्यान एवं व्रत-नियम आदि धर्म-पुण्य से नितान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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