________________ सप्तम शतक : उद्देशक-६] [161 वर्षा बरसाएँगे / डोंगर - छोटे पर्वत / दुणिक्कमा=दुर्निक्रम–मुश्किल से चलने योग्य / अणादेज्जबयणा=जिनके वचन स्वीकार करने योग्य न हों। मज्जायातिक्कमप्यहाणा= मर्यादा का उल्लंघन करने में अग्रणी / गुरुनियोगविणयरहिता=गुरुजनों के आदेश पालन एवं विनय से रहित / फुट्टसिरा खड़े या बिखरे केशों वाले / कबिल-पलियकेसा= कपिल (पीले) एवं पलित (सफेद) केशों वाले। उभडघडमुहा= उद्भट- (विकराल) घटमुख जैसे मुखबाले / बंकवलोविगतभेसणमुहा = टेढ़ेमेढ़े झुरियों से व्याप्त (विकृत) भीषणमुख वाले / कच्छूकसराभिमूता कक्छू (पाँव) के कारण खाजखुजली से आक्रान्त / टोलगति =ऊँट के समान गति वाले, अथवा ऊँट के समान बेडोल आकृति वाले। खलंतबिम्भलगती = स्खलनयुक्त विह्वल गति वाले। प्रोसन्नं - बहुलता से, प्रायः / णिगोदा= कुटुम्ब / पुत्त-णत्तुपरियालपणयबहला-पुत्र-नाती आदि परिवार वाले एवं उनके परिपालन में अत्यन्त ममत्व वाले / ' छठे पारे के मनुष्यों के आहार तथा मनुष्य-पशु-पक्षियों के प्राचारादि के अनुसार मरणोपरान्त उत्पत्ति का वर्णन 34. ते णं भंते ! मणुया कमाहारमाहारेहिति ? गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगा-सिंधूत्रो महानदीपो रहपहवित्थारानो अक्खसोतप्पमाणमित्तं जलं वोज्झिहिति, से वि य णं जले बहुमच्छ-कच्छभाइण्णे णो चेव शं प्राउबहुले भविस्सति / तए गं ते मण्या सूरोग्गमणमुहत्तंसि य सूरत्थमणमुहत्तंसि य बिलेहितो निद्वाहिति, विहितो निद्धाइत्ता मच्छ-कच्छभे थलाई गाहेहिति, मच्छ-कच्छभे थलाई गाहेत्ता सीतातवतत्तएहिं मच्छकच्छएहि एक्कवीसं वाससहस्साई वित्ति कप्पेमाणा विहरिस्संति / / [34 प्र.] भगवन् ! (उस दुषमदुःषमकाल के) मनुष्य किस प्रकार का प्राहार करेंगे ? [34 उ.] गौतम ! उस काल और उस समय में गंगा और सिन्धु महानदियाँ रथ के मार्गप्रमाण विस्तार वाली होंगी। उनमें अक्षस्रोतप्रमाण (रथ की धुरी के प्रवेश करने के छिद्र जितने भाग में पा सके उतना) पानी बहेगा। वह पानी भी अनेक मत्स्य, कछुए आदि से भरा होगा और उसमें भी पानी बहुत नहीं होगा / वे बिलवासी मनुष्य सूर्योदय के समय एक मुहूर्त और सूर्यास्त के समय एक मूहर्त (अपने-अपने) बिलों से बाहर निकलेंगे। बिलों से बाहर निकल कर वे गंगा और सिन्ध नदियों में से मछलियों और कछुआ आदि के सिन्ध नदियों में से मछलियों और कछओं आदि को पकड कर जमीन में गाड़ेंगे। इस प्रकार गाड़े हुए मत्स्य-कच्छपादि (रात की) ठंड और (दिन की) धूप से सिक जाएँगे / (तब वे शाम को गाड़े हुए मत्स्य प्रादि को सुबह और सुबह के गाड़े हुए मत्स्य आदि को शाम को निकाल कर खाएँगे / ) इस प्रकार शीत और आतप से पके हुए मत्स्य-कच्छपादि से इक्कीस हजार वर्ष तक जीविका चलाते हुए (जीवननिर्वाह करते हुए) वे विहरण (जीवनयापन) करेंगे। 35. ते गं भते ! मणुया निस्सीला णिगुणा निम्मेरा निष्पचक्खाणपोसहोववासा उस्सन्न मंसाहारा मच्छाहारा खोदाहारा कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छहिति ? कहि उववजिहिंति ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 306 से 306 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org