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________________ हो जाते हैं / जैसे सागर में नदियां मिलकर एकाकार हो जाती हैं। तत्त्वार्थ सूत्र एवं उसकी विभिन्न टीकाओं में ध्यान का सारगर्भित प्रतिपादन किया गया है / ' 57 ध्यान का चतुर्थ प्रकार शुक्लध्यान है। यह ध्यान की परम विशुद्ध अवस्था है। जब साधक के अन्तर्मानस से कषाय की मलीनता मिट जाती है, तब निर्मल मन से जो ध्यान किया जाता है, वह शुक्लध्यान है। शुक्ल. ध्यानी का अन्तर्मानस वैराग्य से सराबोर होता है। उसके तन पर यदि कोई प्रहार करता है, उसका छेदन या भेदन करता है तो भी उसको संक्लेश नहीं होता। देह में रहकर भी वह देहातीत स्थिति में रहता है। शुक्लध्यान के शुक्ल और परमशुक्ल ये दो भेद हैं। चतुर्दश पूर्वधर तक का ध्यान शुक्लध्यान है और केवलज्ञानी का ध्यान परमशुक्लध्यान है। '58 स्वरूप की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार प्रकार भगवती, 5 स्थानांग, 10 समवायांग'६' आदि में बताये हैं 1. पृथक्त्ववितर्कसविचार--पृथक्त्व का अर्थ है-~-भेद और बितर्क का तात्पर्य है-श्रुत / प्रस्तुत ध्यान में श्रुतज्ञान के आधार पर पदार्थ का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन किया जाता है। द्रव्य, गुण, पर्याय पर चिन्तन करते हुए द्रव्य से पर्याय पर और पर्याय से द्रव्य पर चिन्तन किया जाता है। इस ध्यान में भेदप्रधान चिन्तन होता है। 2. एकत्ववितर्क अविचार-जब भेदप्रधान चिन्तन में साधक का अन्तर्मानस स्थिर हो जाता है तब वह अभेदप्रधान चिन्तन की ओर कदम बढ़ाता है। वह किसी एक पर्यायरूप अर्थ पर चिन्तन करता है तो उसी पर्याय पर उसका चिन्तन स्थिर रहेगा। जिस स्थान पर तेज हवा का प्रभाव होता है, वहाँ पर दीपक की लौ इधर-उधर डोलती नहीं है / उस दीपक को मंद हवा मिलती रहती है, वैसे ही प्रस्तुत ध्यान में साधक सर्वथा निविचार नहीं होता किन्तु एक ही वस्तु पर उसके विचार केन्द्रित होते हैं। 3. सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिशति-यह ध्यान बहुत ही सूक्ष्म क्रिया पर चलता है। इस ध्यान में अवस्थित होने पर योगी पुनः ध्यान से विचलित नहीं होता, इस कारण इस ध्यान को सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति कहा है। यह ध्यान केवल वीतरागी प्रात्मा को ही होता है। जब केवलज्ञानी का प्रायुष्य केवल अन्तर्गहर्त अवशेष रहता है, उस समय योगनिरोध का क्रम प्रारम्भ होता है। मनोयोग और वचनयोग का पूर्ण निरोध हो जाने पर जब केवल सूक्ष्म काययोग से श्वासोच्छ्वास ही अवशेष रह जाता है, उस समय का ध्यान ही सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति ध्यान है। इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही आत्मा अयोगी बन जाता है / 4. समुच्छिन्नक्रिय-अनिवृत्ति--जब प्रात्मा सम्पूर्ण रूप से योगों का निरुन्धन कर लेता है तो समस्त * यौगिक चंचलता समाप्त हो जाती है। आत्मप्रदेश सम्पूर्ण रूप से निष्कम्प बन जाते हैं। सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति ध्यान में श्वासोच्छ्वास की क्रिया जो शेष रहती है, वह भी इस भूमिका पर पहुंचने पर समाप्त हो जाती है। यह परम निष्कम्प और सम्पूर्ण क्रिया-योग से मुक्त ध्यान की अवस्था है / यह अवस्था प्राप्त होने पर पुनः आत्मा पीछे 157. धर्ममप्रमत्तसंयतस्य-तत्त्वार्थ सूत्र 9/37-38 158. तत्त्वार्थ सूत्र 9/39-40 159. भगवती 25/7 160. स्थानांग 4/10 16.. समवायांग 4 [3] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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