________________ प्रकाशकीय श्रमण भगवान महावीर के पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी द्वारा ग्रथित यह व्याख्याप्रज्ञप्ति आगम द्वादशांगी में पंचम स्थान पर है। यह ग्रागम न केवल अन्य सभी अंगों की अपेक्षा विशालकाय है, अपितु विविधविषयक भी है / इसका प्रकाशन अनेक खण्डों में ही हो सकता है। उनमें से प्रथम खण्ड, जिसमें प्रथम पांच शतकों का समावेश हुपा है, पूर्व में ग्रन्थाङ्क 14 के रूप में प्रकाशित किया जा चुका है। तत्पश्चात् राजप्रश्नीय (ग्रन्थांक 15), प्रज्ञापनासूत्र प्र. खण्ड (ग्रन्थाक 16) और प्रश्नव्याकरणसूत्र (ग्रन्थांक 17) प्रकाशित किए जा चुके हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति का प्रस्तुत द्वितीय खण्ड 18 वें ग्रन्थांक के रूप में आगमप्रेमी, श्रुतसमाराधक पाठकों के कर-कमलों में पहुंच रहा है, यह निवेदन करते हमें परम हर्ष और सन्तोष का अनुभव हो रहा है। प्रथम खण्ड की भांति द्वितीय खण्ड का सम्पादन एवं अनुवाद भण्डारी मूनि श्री पदमचन्दजी महाराज के सुशिष्य पण्डितप्रवर श्री अमरमुनिजी म. तथा श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराणा 'सरस' ने किया है। संशोधन-कार्य विद्वद्वर्य विश्रत श्रुतधर श्रमणसंघ के युवाचार्य पू. श्री मघकर मुनिजी म. एवं पं. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने किया है। प्रस्तुत द्वितीय खण्ड में छठे से दसवें शतक तक का समावेश हा है। आगे का सम्पादन-अनुवाद-कार्य चाल है और आशा है यथासम्भव शीघ्र हम अगले खण्ड पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर सकेंगे। प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय खण्ड का मुद्रण चाल है और उत्तराध्ययनसत्र शीघ्र प्रेस में दिया जाने वाला है। अन्य प्रागमो पर भी कार्य हो रहा है। प्रस्तुत प्रकाशन-कार्य में जिन-जिन महानुभावों का बौद्धिक एवं प्राथिक सहयोग हमें प्राप्त हो रहा है, उन सभी के प्रति हम अतीव प्राभारी हैं। युवाचार्यश्रीजी तो इस प्रकाशन के प्राणस्वरूप ही हैं। प. श्री अमर मुनिजी म. के प्रति, समस्त प्रर्थसहायकों के प्रति और विशेषत: मेठ श्री अनराजजी सा. चोरड़िया के प्रति, जिनके विशेष आर्थिक सहयोग से प्रस्तुत प्रागम मुद्रित हो रहा है, अतीव प्राभारी हैं। श्रीमान् चोरडियाजी सा का परिचय पृथक रूप में दिया जा रहा है। श्रुतज्ञान के अधिकाधिक प्रचार-प्रसार की दृष्टि से ग्रन्थों का मूल्य बहुत कम रक्खा जा रहा है और अग्रिम ग्राहकों को 1000) रु. तथा संस्थानों को केवल 700) रु. में सम्पूर्ण बत्तीसी दी जा रही है। वास्तव में नाम मात्र का यह मूल्य है—लागत से भी बहुत कम / फिर भी अग्रिम ग्राहकों की संख्या सन्तोषजनक नहीं है / यह स्थिति आगम-ज्ञान के प्रति समाज के अनुराग एवं लगन की कमी की द्योतक है। हम समस्त अर्थसहयोगी तथा अग्रिम ग्राहक महानुभावों से साग्रह निवेदन करना चाहेंगे कि वे प्रत्येक कम से कम पांच अग्रिम ग्राहक बना कर ज्ञान-प्रचार के इस पवित्र अनुष्ठान में सहभागी बन कर हमारा उत्साह बढ़ाएँ और पूण्य के भागी बने / चांदमल विनायकिया रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष जतनराज मेहता प्रधानमन्त्री श्री पागम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) मन्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org