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________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16] शेष सब जीव (तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर देव, ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव), बढ़ते-घटते हैं, यह पहले की तरह ही कहना चाहिए / किन्तु उनके अवस्थान-काल में इस प्रकार भिन्नता है, यथा-सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों का (अवस्थानकाल) दो अन्तमुहूर्त का; गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यग्योतिकों का चौबीस मुहूर्त का, सम्मूच्छिम मनुष्यों का 48 मुहूर्त का, गर्भज मनुष्यों का चौबीस महतं का. बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान देवों का 48 महतं का, सनत्कुमार देव का अठारह महोरात्रि तथा चालीस महत का अवस्थानकाल है। माहेन्द्र देवलोक के देवों का चौबीस रात्रिदिन और बीस मुहूर्त का, ब्रह्मलोकवर्ती देवों का 45 रात्रिदिवस का, लान्तक देवों का 60 रात्रिदिवस का, महाशुक्र-देवलोकस्थ देवों का 160 अहोरात्रि का, सहस्रारदेवों का दो सौ रात्रिदिन का, आनत और प्राणत देवलोक के देवों का संख्येय मास का, पारण और अच्युत देवलोक के देवों का संख्येय वर्षों का अवस्थान-काल है। इसी प्रकार नौ ग्रैवेयक देवों के (अवस्थान-काल के) विषय में जान लेना चाहिए / विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानवासी देवों का अवस्थानकाल असंख्येय हजार वर्षों का है / तथा सर्वार्थसिद्ध-विमानवासी देवों का अवस्थानकाल पल्योपम का संख्यातवाँ भाग है। और ये सब जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट प्रालिका के असंख्यातवें भाग तक बढ़तेघटते हैं। इस प्रकार कहना चाहिए, और इनका अवस्थानकाल जो ऊपर कहा गया है, वही है / 20. [1] सिद्धा णं मते ! केवतियं कालं बड्दति ? गोयमा! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ट समया / [20-1 प्र.] भगवन् ! सिद्ध कितने काल तक बढ़ते हैं ? [20-1 उ.] गौतम ! जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टत: पाठ समय तक सिद्ध बढ़ते हैं। [2] केवतियं कालं प्रवादिया? गोयमा ! जहन्नेणं एककं समय, उक्कोसेणं छम्मासा / [20-2 प्र.] भगवन् ! सिद्ध कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? [20-2 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक सिद्ध अवस्थित रहते हैं। विवेचन-संसारी और सिद्ध जीवों की वृद्धि, हानि और अवस्थिति एवं उनके काल-मान को प्ररूपणा–प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 10 से 20 तक) में समस्त जीवों की वृद्धि, हानि एवं अवस्थिति तथा इनके काल-मान की प्ररूपणा की गई है। वद्धि, हानि और अवस्थिति का तात्पर्य कोई भी जीव जब बहुत उत्पन्न होते हैं और थोड़े मरते हैं, तब 'वे बढ़ते हैं, ऐसा व्यपदेश किया जाता है, और जब वे बहुत मरते हैं और थोड़े उत्पन्न होते हैं, तब वे घटते हैं।' ऐसा व्यपदेश किया जाता है। जब उत्पत्ति और मरण समान संख्या में होता है, अर्थात्-जितने जीव उत्पन्न होते हैं, उतने ही मरते हैं, अथवा कुछ काल तक जीव का जन्म-मरण नहीं होता, तब यह कहा जाता है कि वे अवस्थित हैं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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