________________ पंचम शतक : उद्देशक-८ ] [ 505 16. [1] असुरकुमारा वि वढंति हायंति, जहा नेरइया / अवट्ठिता जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्टचालीसं मुहुत्ता। 616-1] जिस प्रकार नैरयिक जीवों की वृद्धि हानि के विषय में कहा है, उसी प्रकार असुरकुमार देवों की वृद्धि-हानि के सम्बन्ध में समझना चाहिए। असुरकुमार देव जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट 48 मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। _[2] एवं दसविहा वि / / [16-2] इसी प्रकार दस ही प्रकार के भवनपतिदेवों की वृद्धि, हानि और अवस्थिति का कथन करना चाहिए। 17. एगिदिया वड्ढंति वि, हायंति वि, प्रवदिया वि / एतेहि तिहि वि जहन्नेणं एक्कं समयं, उनकोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभागं / [17] एकेन्द्रिय जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। इन तीनों (वृद्धि-हानि-अवस्थिति) का काल जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टः आवलिका का असंख्यातवां भाग (समझना चाहिए।) 18. [1] बेइंदिया बड्ढंति हायंति तहेव अवट्ठिता जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं बो अंतोमुत्ता। [18-1] द्वीन्द्रिय जीव भी इसी प्रकार बढ़ते-घटते हैं / इनके अवस्थान-काल में भिन्नता इस प्रकार है-ये जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः दो अन्तमुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। [2] एवं जाव चतुरिदिया। [15-2] द्वीन्द्रिय की तरह त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों तक (का वृद्धि हानि-अवस्थितिकाल) कहना चाहिए। 16. प्रवसेसा सव्वे वड्ढंति, हायति तहेव / अवट्ठियाणं णाणतं इम, तं जहा—सम्मुच्छिम. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं दो अंतोमुत्ता / गब्भवक्कतियाणं चउन्बीसं महत्ता / सम्मुच्छिममणुस्साणं अटुचत्तालीसं मुहुत्ता। गब्भवतियमणुस्साणं चउब्बीसं मुहुत्ता। वाणमंतर-जोतिस-सोहम्मोसाणेसु अट्टचत्तालीसं मुहुत्ता। सर्णकुमारे अट्ठारस रातिदियाई चत्तालोस य मुहुत्ता / माहिद चउबीसं रातिदियाई, वीस य मुहुत्ता। बंभलोए पंच चत्तालोसं रातिदियाई। संतए न उति रातिदियाई / महासुक्के स? रातिदियसतं / सहस्सारे दो रातिदियसताइ / आणघ-पाणयाणं संखेज्जा मासा / प्रारणऽच्चुयाणं संखेज्जाइं वासाइं / एवं गेवेज्जगदेवाणं / विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियाणं असंखिज्जाईवाससहस्साई। सम्वसिद्ध य पलिग्रोवमस्स संखेज्जतिभागो / एवं भाणिय-वड्दति हायति जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंखेज्जतिभाग; अवढियाणं जं भणियं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org