________________ पंचम शतक : उद्देशक-८ ] [ 507 उदाहरणार्थ-नैरयिक जीवों का प्रवस्थान काल 24 मुहूर्त का कहा गया है / वह इस प्रकार समझना चाहिए-सातों नरकपृथ्वियों में 12 मुहर्त तक न तो कोई जीव उत्पन्न होता है, और न ही किसी जीव का मरण (उद्वर्तन) होता है। इस प्रकार का उत्कृष्ट विरहकाल होने से इतने समय तक नरयिक जीव अवस्थित रहते हैं। तथा दसरे 12 महर्त तक जितने जीव नरकों में उत्पन्न होते हैं, उतने ही जीव वहाँ से मरते हैं, यह भी नैरयिकों का अवस्थानकाल है तात्पर्य यह है कि 24 मुहूर्त तक नैरयिकों को (हानि-वृद्धिरहित) एक परिमाणता होने से उनका प्रवस्थानकाल 24 मुहर्त का कहा गया है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का अवस्थानकाल उत्कृष्ट दो अन्तमुहर्त्त का बताया गया है। एक अन्तर्मुहूर्त तो उनका विरहकाल है। विरहकाल अवस्थानकाल से प्राधा होता है। इस कारण दूसरे अन्तर्मुहूर्त में वे समान संख्या में उत्पन्न होते और मरते हैं। इस प्रकार इनका अवस्थानकाल दो अन्तर्मुहूर्त का हो जाता है।' सिद्ध पर्याय सादि अनन्त होने से उनकी संख्या कम नहीं हो सकती, परन्तु जब कोई जोव नया सिद्ध होता है तब वृद्धि होती है। जितने काल तक कोई भी जीव सिद्ध नहीं होता उतने काल तक सिद्ध अवस्थित (उतने के जतने) ही रहते हैं। संसारी एवं सिद्ध जीवों में सोपचयादि चार भंग एवं उनके कालमान का निरूपण 21. जीवा णं भते ! कि सोवचया, सावचया, सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया ? गोयमा ! जीवा णो सोवचया, नो सावचया, णो सोवचय सावचया, निरुव चयनिरवचया। [21 प्र.] भगवन् ! क्या जीव सोपचय (उपचयसहित) हैं, सापचय (अपचयसहित) हैं, सोपचय-सापचय (उपचय-अपचयसहित) हैं या निरुपचय (उपचयरहित)-निरपचय (अपचयरहित) हैं ? [21 उ.] गौतम ! जीव न सोपचय हैं, और न ही सापचय हैं, और न सोपचय-सापचय हैं, किन्तु निरुपचय-निरपचय हैं / 22. एगिदिया ततियपद, सेसा जोवा च उहि वि पदेहि भाणियन्वा / [22] एकेन्द्रिय जीवों में तीसरा पद (विकल्प-सोपचय-सापचय) कहना चाहिए / शेष सब जीवों में चारों ही पद (विकल्प) कहने चाहिए। 23. सिद्धाणं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा सोवचया, णो सावचया, णो सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया / [23 प्र.] भगवन् ! क्या सिद्धः भगवान् सोपचय हैं, सापचय हैं, सोपचय-सापचय हैं या निरुपचय-निरपचय हैं ? 1. (क) भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 245 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 2, पृ. 911-912 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org