________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * सातवें 'संश्लिष्ट' उद्देशक में भगवान द्वारा गौतम स्वामी को इसी भव के बाद अपने समान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का आश्वासन दिया गया है। तत्पश्चात् अनुत्तरौपपातिक देवों की जाननेदेखने की शक्ति का तथा छह प्रकार के तुल्य के स्वरूप का पथक्-पृथक् विश्लेषण किया गया है / फिर अनशनकर्ता अनगार द्वारा मूढता-अमूढतापूर्वक पाहाराध्यवसाय की चर्चा की गई है। अन्त में लवसप्तम और अनुत्त रोपपातिक देव स्वरूप की सहेतुक प्ररूपणा की गई है। * आठवें उद्देशक में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी एवं अलोकपर्यन्त परस्पर अबाधान्तर की प्ररूपणा की गई है / तत्पश्चात् शालवृक्ष आदि के भावी भवों की, अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्यों की आराधकता की, अम्बड को दो भबों के बाद मोक्षप्राप्ति की, अव्याबाध देवों की अव्याबाधता की, सिर काटकर कमण्डलु में डालने की शकेन्द्र की वैक्रियशक्ति को तथा जम्भक देवों के स्वरूप, भेद, गति एवं स्थिति की प्ररूपणा की गई है / नौवें उही शक में भावितात्मा अनगार की ज्ञान-सम्बन्धी और प्रकाशपूदगलस्कन्ध-सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है / तदनन्तर चौवीस दण्डकों में पाए जाने वाले प्रात्त-अनात्त, इष्टानिष्ट आदि पुद्गलों की, महद्धिक देव की भाषासहस्रभाषणशक्ति की, सूर्य के अन्वर्थ तथा उसकी प्रभा आदि के शुभत्व की परिचर्चा को गई है / अन्त में श्रामण्यपर्यायसुख की देवसुख के साथ तुलना की गई है। दसवें उद्दशक में केवली एवं सिद्ध द्वारा छद्मस्थादि को तथा केवली द्वारा नरकपृथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभारापृथ्वी तक को तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को जानने-देखने की शक्ति की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत उद्देशक में कुल मिला कर देव, मनुष्य, अनगार, केवली, सिद्ध, नैरयिक, तिर्यञ्च आदि जीवों की प्रात्मिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार की शक्तियों का रोचक वर्णन है।" 00 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 658 से 688 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org