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________________ 316] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिन शब्दार्थ-उत्तर-पुरस्थिमे-उत्तरपूर्व-ईशानकोण में / पच्चवेक्खमाणे-भलीभांति (सर्वत्र) निरीक्षण करता हुआ / नियए भाइणेज्जे-अपना सगा भानजा / बद्धमउडाणं-मुकुट बद्ध / विदिण्णछत्त-चामर-वालवीयणाणं जिन्हें छत्र, चामर और बालव्यजन (छोटे पंखे), राजचिह्नस्वरूप दिये गये थे। आहेवच्चं पोरेवचं जाव कारेमाणे पालेमाणे-याधिपत्य करता एवं राज्य का अग्रेसरत्व-परिपालन करता हुा / ' . सिन्धुसौवीर जनपद, वोतिभयनगर : विशेषार्थ--सिन्धुनदी के निकटवर्ती सौवीर-जनपद विशेष–सिन्धुसौवीर जनपद (देश) कहलाते हैं। वीतिभय-जिसमें ईति और भीतिरूप भय न हो उसे 'वीतिभय' कहते हैं / ईतियाँ छह हैं--(१) अतिवृष्टि, (2) अनावृष्टि, (3-4-5) चहे, टिड्डीदल, एवं पतंगे आदि का उपद्रव तथा (6) स्वचक्र-परचक का भय (अपने अधीनस्थ राजा, अधिकारी आदिस्वचक्र तथा शत्रु राजा आदि का भय) उदायन राजा की राजधानी वीतिभयनगर था / 'वीतिभय' को कुछ लोग 'विदर्भ' कहते हैं। पौषधरत उदायननप का भगवद्वन्दनादि-अध्यवसाय / 17. तए णं से उदायणे राया अन्नदा कदायि जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छति, जहा संखे (स० 12 उ० 1 सु० 12) जाव विहरति / [17] एक दिन वह उदायन राजा जहाँ (अपनी) पौषधशाला थी, वहाँ पाए और (बारहवेंशतक के प्रथम उद्देशक के 12 वें सूत्र में वणित) शंख श्रमणोपासक के समान पौषध करके यावत् विचरने लगे। 18. तए णं तस्स उदायणस्स रण्णो पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूये अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-"धन्ना णं ते गामाऽऽगर-नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणा-ऽऽसम-संवाह-सन्निवेसा जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरति, धन्ना गं ते राईसर-तलवरं जाव सत्यवाहप्पभितयो जे णं समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति जाव पज्जवासंति / जति णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं जाव विहरमाणे इहमागच्छेज्जा, इह समोसरेज्जा, इहेब वोतोभयस्स नगरस्स बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरूवं प्रोग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं जाब विहरेज्जा तो णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदेज्जा, नमसेज्जा जाव पज्जुवासेज्जा / " [18] तत्पश्चात् पूर्वरात्रि व्यतीत हो जाने पर पिछली रात्रि के समय (रात्रि के पिछले पहर) में धर्मजागरिकापूर्वक जागरण करते हुए उदायन राजा को इस प्रकार का अध्यवसाय (संकल्प) 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2232 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 621 2. (क) वही, पत्र 620-621 / / (ख) अतिवृष्टिरनावृष्टिमूषका शलभाः शुकाः / ___ स्वचक्र परचक्र च षडेते ईतयः स्मृताः // ' (ग) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2233 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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