________________ बीओ उद्देसओ : 'जरा' द्वितीय उद्देशक : 'जरा' जीवों और चौवीस दण्डकों में जरा और शोक का निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं वदासि[१] राजगृह नगर में (श्रमण भगवान महावीर से) (गौतम स्वामी ने) यावत् इस प्रकार 2. [2] जीवाणं भंते ! कि जरा, सोगे ? गोयमा ! जीवाणं जरा वि, सोगे वि। [2-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के जरा और शोक होता है ? [2-1 उ.] गौतम ! जोवों के जरा भी होती है और शोक भी होता है। [2] से केण?णं भंते ! जाव सोए वि? गोयमा ! जे णं जीवा सारीरं वेषणं वेदेति तेसि णं जीवाणं जरा, जे णं जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं सोगे / से तेणढणं जाव सोगे वि / [2.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से जीवों को जरा भी होती है और शोक भी होता है ? [2-2 उ.] गौतम ! जो जीव शारीरिक वेदना वेदते (भोगते-अनुभव करते हैं, उन जीवों को जरा होती है और जो जीव मानसिक वेदना वेदते हैं, उनको शोक होता है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि जीवों के जरा भी होती है और शोक भी होता है। 3. एवं नेरइयाण वि।' [3] इसी प्रकार नैरयिकों के (जरा और शोक के विषय में) भी समझ लेना चाहिए / 4. एवं जाव थपियकुमाराणं / [4] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों के विषय में भी जान लेना चाहिए / 5. [1] पुढयिकाइयाणं भंते ! कि जरा, सोगे ? गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे। [5.1 प्र.] भंते ! क्या पृथ्वीकायिक जीवों के भी जरा और शोक होता है ? [5-1 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के जरा होती है, शोक नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org