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________________ 542] [व्याख्याज्ञप्तिसूत्र [2] से केणगं जाव नो सोगे? गोयमा ! पुढविकाइया णं सारीरं वेदणं वेदेति, नो 'माणसं वेदणं वेदेति / से तेणगं जाव नो सोगे। {5-2 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के जरा होती है, शोक क्यों नहीं होता? {5-2 उ.] गौतम ! पृथ्वी कायिक जोव शारीरिक वेदना वेदते हैं, मानसिक वेदना नहीं वेदते; इस कारण उनके जरा होती है, शोक नहीं होता / 6. एवं जाव चरिदियाणं / [6] इसी प्रकार (प्रकायिक से लेकर) यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए / 7. सेसाणं जहा जोवाणं जाव वेमाणियाणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव पज्जुवासति / [7] शेष जीवों का कथन सामान्य जीवों के समान यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् पर्युपासना करते हैं / विवेचन-जरा और शोक : किनको पोर क्यों-जरा का अर्थ है-वृद्धावस्था और शोक का अर्थ है-चिन्ता, खिन्नता, दैन्य या खेद आदि / जरा शारीरिक दुःखरूप है और शोक मानसिक दुःखरूप / प्रस्तुत में 'जरा' शब्द से उपलक्षण से अन्य शारीरिक दुःख तथा शोक से समस्त मानसिक ग्रहण किया गया है। चौवीसदण्डकी जीवों में जिनके केवल काययोग है, (मनोयोग का अभाव है), उन्हें केवल जरा होती है और जिनके मनोयोग भी है, उनको जरा और शोक दोनों हैं। अर्थात् वे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों का वेदन (अनुभव) करते हैं।' शक्रेन्द्र द्वारा भगवद्दर्शन, प्रश्नकरण एवं अवग्रहानुज्ञा-प्रदान 8. तेणं कालेणं तेणं समयेणं सक्के देविदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे जाव भुजमाणे विहरति / इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विपुलेणं प्रोहिणा प्रामोएमाणे प्राभोएमाणे पासति यऽस्थ समण भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दोवे एवं जहा ईसाणे ततियसए (स० 3 उ० 1 सु० 33) तहेव सक्को वि / नवरं आभियोगिए ण सद्दावेति, हरी पायताणियाहिवतो, सुघोसा घंटा, पालओ विमाणकारी, पालग विमाणं, उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे, दाहिणपुरथिमिल्ले रतिकरपव्वए, सेसं तं चेव, जाव नामगं सावेत्ता पज्जुवासति / धम्मकहा जाव परिसा पडिगया / [4] उस काल एवं उस समय में शक देवेन्द्र देवराज, वज्रपाणि, पुरन्दर यावत् (दिव्य भोगों का) उपभोग करता हा विचरता था। वह इस सम्पूर्ण (केवलकल्प) जम्बूद्वीप नामक द्वीप की ओर अपने विपुल अवधिज्ञान का उपयोग लगा-लगा कर जम्बूद्वीप नामक द्वीप में श्रमण भगवान् महावीर को देख रहा था। यहाँ तृतीय शतक (के प्रथम उद्देश क, सू. 33) में कथित ईशानेन्द्र की 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 700 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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