________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 9] [739 19. एवं मणुस्सस्स वि। [19] (भव्यद्रव्य-) मनुष्य की स्थिति भी इसी प्रकार है / 20. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। __ अट्ठारसमे सए : नवमो उद्देसओ समतो // 18-1 // [20] (भव्यद्रव्य) वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव की स्थिति असुरकुमार के समान है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-भव्य-द्रव्य नारकादि को जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति-जो संज्ञी या प्रसंज्ञी अन्तर्मुहूर्त की आय वाला जीव मर कर नरकगति में जाने वाला है, उसकी अपेक्षा भव्य-द्रव्य-नैरयिक की जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त की कही गई है। उत्कृष्ट करोड़ पूर्व की आयु वाला जीव मर कर नरकगति में जाए उसकी अपेक्षा से उत्कृष्ट स्थिति करोड़ पूर्व वर्ष की कही गई है। जघन्य अन्तर्मुहूर्त की आयु वाले मनुष्य या तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय की अपेक्षा से भव्यद्रव्य असुरकुमारादि को जघन्य स्थिति जाननी चाहिए / तथा देवकुरु- उत्तर कुरु से यौलिक मनुष्य की अपेक्षा से तीन पल्योपभ को उत्कृष्ट स्थिति समझनी चाहिए। भव्य-द्रव्य-पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट स्थिति ईशानकल्प (देवलोक) की अपेक्षा कुछ अधिक दो सागरोपम की है। ___भव्य-द्रव्य अग्निकायिक और वायुकायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है, क्योंकि देव और यौगलिक मनुष्य अग्निकाय और वायुकाय में उत्पन्न नहीं होते / भव्यद्रव्यपंचेन्द्रियतिर्यञ्च को उत्कृष्ट स्थिति 33 सागरोपम की बताई है, वह सातवें नरक के नारकों की अपेक्षा से समझनी चाहिए / और भव्य द्रव्य मनुष्य की 33 सागरोपम की स्थिति सर्वार्थसिद्ध से च्यवकर पाने वाले देवों की अपेक्षा समझनी चाहिए।' / / अठारहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त // 1. भगवतो, अ. वृत्ति, पत्र 756-757 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org