________________ 66] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [41-2] इस प्रकार-जिस तरह विमानों का प्रतिष्ठान, विमानों का बाहल्य, विमानों की ऊँचाई और विमानों के संस्थान आदि का वर्णन; जीवाभिगमसूत्र के देव-उद्देशक में ब्रह्मलोक की वक्तव्यता में कहा है, तदनुसार यहाँ भी कहना चाहिए, यावत्-हो, गौतम ! सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व यहाँ अनेक बार और अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं, किन्तु लोकान्तिकविमानों में देवरूप में उत्पन्न नहीं हुए। 42. लोगंतिमविमाणेसु लोगतियवेवाणं माते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! अटु सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। [42 प्र.] भगवन् ! लोकान्तिकविमानों में कितने काल की स्थिति कही गई है ? [42 उ.] गौतम ! लोकान्तिकविमानों में पाठ सागरोपम की स्थिति कही गई है। 23. लोगतिगविमाहि णं भाते ! केवतिय अबाहाए लोगते पण्णते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई प्रबाहाए लोगते पण्णत्ते / से भते ! सेवं भते! ति० / ॥छट्ठ सए : पंचमो उद्देसमो समत्तो॥ [43 प्र.] भगवन् ! लोकान्तिकविमानों से लोकान्त कितना दूर है ? [43. उ.] गौतम! लोकान्तिकविमानों से असंख्येय हजार योजन दूर लोकान्त कहा गया है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है;' इस प्रकार कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे। विषेचन-लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमान, देवस्वामी, परिवार, संस्थान, स्थिति, दूरी प्रादि का वर्णन प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. 32 से 43 तक) में लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमानादि का वर्णन किया गया है। विमानों का अवस्थान---पूर्व विवेचन में लोकान्तिक देवों के विमानों के अवस्थान का रेखाचित्र दिया गया है। लोकान्तिक देवों का स्वरूप-ये देव ब्रह्मलोक नामक पंचम देवलोक के पास रहते हैं, इसलिए इन्हें लोकान्तिक कहते हैं / अथवा ये उदयभावरूप लोक के अन्त (करने में) रहे हुए हैं, क्योंकि ये सब स्वामी देव एकभवावतारी (एक भव के पश्चात् मोक्षगामी) होते हैं, इसलिए भी इन्हें लोकान्तिक कहते हैं / लोकान्तिक विमानों से असंख्यात योजन दूरी पर लोक का अन्त है और सभी जीव लोकान्तिक विमानों में पृथ्वीकायादि रूप में अनेक बार, यहाँ तक कि अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, किन्तु देवरूप से तो वहाँ एक बार ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि लोकान्तिक विमानों में देवरूप से उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org