________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 24] [271 [21 उ. (गौतम ! ) सहस्रारदेवों के समान यहाँ उपपात (उत्पत्ति) कहना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ तिर्यञ्च की उत्पत्ति का निषेध करना चाहिए / यावत्-- 22. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयस निमणुस्से णं भंते ! जे भविए प्राणयदेवेसु उबबज्जित्तए ? मणुस्साण य वसव्वया जहेव सहस्सारे उववज्जमाणाणं, णवरं तिन्नि संघयणाणि / सेसं तहेव, जाव अणुबंधो। भवाएसेणं जहन्नेणं तिणि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं अट्ठारस सागरोवमाई दोहि वासपुहतेहिं अभहियाई, उक्कोसेणं सत्ताबण्णं सागरोवमाई चउहि पुवकोडीहि अमहियाई; एवतियं० / एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियब्वा, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तहेव / 22 प्र. भगवन् ! संख्यात वर्ष की प्रायु वाला पर्याप्त संज्ञी मनुष्य, जो आनतदेवों में उत्पन्न होने योग्य है; वह कितने काल की स्थिति वाले अानतदेवों में उत्पन्न होता है ? 22 उ. (गौतम ! ) सहस्रारदेवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों की वक्तव्यता के समान यहाँ भी कहना चाहिए / विशेषता यह है कि इसमें प्रथम के तीन संहनन होते हैं। शेष पूर्ववत् यावत् अनुबन्धपर्यन्त / भवादेश से... जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव ग्रहण करता है / कालादेश सेजघन्य दो वर्षपृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक सत्तावन सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। (यह प्रथम गमक है / ) इसी प्रकार शेष पाठ गमक भी कहने चाहिए / परन्तु स्थिति और संवेध (अपना-अपना पृथक-पृथक्) जानना चाहिए / शेष पूर्ववत् / [गमक 1 से 1 तक] 23. एवं जाव अच्चुयदेवा, नवरं ठित संवेहं च जाणेज्जा। चउसु वि संघयणा तिन्नि आणयादिसु / 23] इसी प्रकार यावत् अच्युतदेव-पर्यन्त जानना चाहिए। किन्तु स्थिति और संवेध (भिन्न-भिन्न) कहना चाहिए / आनतादि चार देवलोकों में प्रथम के तीन संहनन वाले उत्पन्न होते हैं। 24. गेवेज्जगदेवा गं भंते ! कत्रो० उचवज्जति ? एस चेव वत्तब्धया, नवरं संघयणा दो। ठिति संवेहं च जाणेज्जा। |24 प्र. भगवन् ! बेयकदेव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [24 उ.] यही (पूर्वोक्त) वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष—इनमें प्रथम के दो संहनन वाले उत्पन्न होते हैं तथा स्थिति और संवेध, (इनका अपना-अपना) समझना चाहिए। 25. विजय-वेजयंत जयंत-अपराजियदेवा गं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? 0 एस व वत्तवता निरवसेसा जाव अणुबंधो ति, नवरं पढमं संघयणं, सेसं तहेव / भवाएसेणं जहन्नेणं तिनि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्महणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं एक्कत्तीसं सागरोक्माइं दोहि वासपुहत्तेहि अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावटि सागरोवमाई तिहि पुस्वकोडोहिं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org