________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [767 नीचे लिखे रेखाचित्र से इस उद्देशक का वक्तव्य सरलता से समझ में आ जाएगा--- देव-नाम भवनावास, विमानावास या नगरावास / कथंचित शाश्वत- / . अशाश्वत कैसे ? कितने ? 64 लाख भवनयति देव भवनावास सर्व रत्न मय / स्वच्छ, श्लक्ष्ण, निर्मल कोमल, घृष्ट मष्ट, कान्तिवाणव्यन्तर देव भूमिगत नगरावास सर्व रत्न मय / मय, मलविहीन, उद्योत ज्योतिष्क देव विमानावास सर्व स्फटिक मय सहित, प्रसन्नताजनक वैमानिक सौधर्म कल्प देव | विमानावास सर्व रत्न मय दर्शनीय, अतिरम्य " " " ईशान कल्प सनत्कुमार कल्प माहेन्द्र कल्प ब्रह्मलोक कल्प लान्तक कल्प महाशुक्र कल्प सहस्रार कल्प आणत-प्राणत प्रारण-अच्युत नौ ग्रेवेयक अतुत्तर " " विमान असंख्यात लाख असंख्यात लाख बत्तीस लाख 28 लाख 12 लाख 8 लाख 4 लाख 50 हजार 40 हजार 6 हजार 300 " " क्रमश : 9 और 50 कठिनशब्दार्थ-- दवट्ठयाए-द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से / किमया-किससे बने हैं, कैसे हैं ? सव्वकालिहामया-सर्वस्फटिकरत्नमय / वक्कमति : विशेषार्थ-जो पहले वहाँ कभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, वे उत्पन्न होते हैं। विउक्कमंतिः -(1) विशेषरूप से उत्पन्न होते हैं, (2) विनष्ट होते हैं / चयंति:-च्यवते हैं, मरते हैं, च्युत होते हैं—निकलते हैं। उववज्जतिः-पुनः उत्पन्न होते हैं / // उन्नीसवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 13, पृ. 412-413 (ख) वियाहपण्णत्ति भा. 2. म. पा. टि. प्र. 845 2. भगवती. विवेचन भा. 6 (पं. घे.), पृ. 2807-8 / (ख) भगवती. भा. 13, (प्र. चं. टीका), पृ. 407 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org