________________ 170] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परिवर्त्त दीर्घकाल-साध्य होने से मन:पुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल उससे अनन्तगुणा कहा गया है। उससे वचनपुद्गलपरिवर्त्त निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा हैं / यद्यपि मन की अपेक्षा वचन शीध्र प्राप्त होता है / तथा द्वीन्द्रियादि-अवस्था में भी वचन होता है / तथापि मनोद्रव्यों की अपेक्षा भाषाद्रव्य अत्यन्तस्थल होते हैं, इसलिए एक बार में उनका अल्पपरिमाण में ही ग्रहण होता है। अतः मनःपुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल से वाक्-पुद्गल-परिवर्त्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है / इससे वैक्रियपुद्गलपरिवर्त्तनिष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है, क्योंकि वैक्रिय शरीर बहुत दीर्घकाल में प्राप्त होता है / सप्तविध पुद्गलपरिवर्तों का अल्पबहुत्व 54. एएसि णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टाणं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टाण य क्यरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया था? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेउम्विधपोम्गलपरियट्टा, वइपोग्गलपरियट्टा अणंत गुणा, मणपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा, आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अगंतगुणा, ओरालियपोग्गलपरियट्टा अगंतगुणा, तेयापोगलपरियट्टा अणंतगुणा, कम्मगपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं जाव विहरइ / // बारसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो / / 12-4 / / [54 प्र. भगवन् ! औदारिक पुद्गलपरिवर्त (से लेकर), यावत् पान-प्राणपुद्गल-परिवर्त में कौन पुद्गलपरिवर्त्त किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है ? 54 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े वैक्रिय-पुद्गलपरिवत्र्त हैं / उनसे वचन-पुद्गल-परिवर्त्त अनन्तगुणे होते हैं, उनसे मन:पुद्गल-परिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, उनसे पानप्राण-पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं। उनसे औदारिकपुद्गल-परिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, उनसे तैजस पुद्गलपरिवर्त अनन्तगुणे हैं और उनसे भी कार्मणपुद्गल परिवर्त अनन्तगुणे हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर भगवान् गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पुदगल-परिवर्तों के अल्पबहत्व का कारण—इन सप्तविध पुदगल-परिवों में सबसे थोड़े वैक्रियपुद्गल परिवर्त हैं, क्योंकि वे बहुत दीर्घकाल में निष्पन्न होते हैं। उनसे बचनपुद्गल-परिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अल्पतर काल में ही निष्पन्न होते हैं / इसी प्रकार पूर्वोक्त युक्ति से बहुत, बहुत र आदि क्रम से आगे-आगे के पुद्गलपरिवों का अल्पबहुत्व कह देना चाहिये / / // बारहवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 570 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 570 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org