________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [371 42. एगिदियोरालिय० पुच्छा। गोयमा ! सव्वबघतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई / देसबध तरं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुतं / [42 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-ग्रौदारिक-शरीर-बन्ध का अन्तर कितने काल का है ? [42 उ.] गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लक भव-ग्रहणपर्यन्त है और उत्कृष्टतः एक समय अधिक बाईस हजार वर्ष है। देशबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है। 43. पुढ विक्काइयएगिदिय० पुच्छा। गोयमा ! सव्वबंधतरं जहेब एगिदियस्स तहेब भाणियब्वं; देसबंध तरं जहन्ने एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिष्णि समया। 43 प्र.| भगवन् ! पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरबन्ध का अन्तर कितने काल [43. उ.] गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जिस प्रकार एकेन्द्रिय का कहा गया है, उसी प्रकार कहना चाहिए / देशबन्ध का अन्तर जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः तीन समय का है / 44. जहा पुढविषकाइयाणं एवं जाव घरिदियाणं बाउक्काइयवज्जाणं, नवरं सवबंध तरं उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयाहिया कायवा। बाउक्काइयाणं सध्यबंधतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तिणि वाससहस्साई समयाहियाई। देसबंधतरं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / [44] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों का शरीरबन्धान्तर कहा गया है, उसी प्रकार वायुकायिक जीवों को छोड़ कर चतुरिन्द्रिय तक सभी जीवों का शरीरबन्धान्तर कहना चाहिए; किन्तु विशेषतः उत्कृष्ट सर्वबन्धान्तर जिस जीव की जितनी (प्रायुष्य) स्थिति हो, उससे एक समय अधिक कहना चाहिए। (अर्थात्--सर्वबन्ध का अन्तर समयाधिक आयुष्यस्थिति-प्रमाण जानना चाहिए।) वायुकायिक जीवों के सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लकभव-ग्रहण और उत्कृष्टतः समयाधिक तीन हजार वर्ष का है / इनके देशबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है। 45. पंचिदियतिरिक्खजोणियोरालिय० पुच्छा। सन्वबंधतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं पुब्दकोडी समयाहिया, देशबंधतरं जहा एगिदियाणं तहा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं। [45 प्र.] भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-औदारिकशरीरबन्ध का अन्तर कितने काल का कहा गया है ? [45 उ.] गौतम ! इनके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लकभव-ग्रहण है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org