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________________ 372] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और उत्कृष्टतः समयाधिक पूर्वकोटि का है। देशबन्ध का अन्तर जिस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों का कहा गया, उसी प्रकार सभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का कहना चाहिए। 46. एवं मणुस्साण वि निरवसेसं भाणियन्वं जाव उक्कोसेणं अंतोमहत्तं / [46] इसी प्रकार मनुष्यों के शरीरबन्धान्तर के विषय में भी पूर्ववत यावत--'उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त का है'--यहाँ तक सारा कथन करना चाहिए / 47. जीवस्स णं भंते ! एगिदियत्ते गोएगिदियत्ते पुणरवि एगिदियत्ते एगिदियोरालिय. सरीरप्पओगबधतरं कालमो केवच्चिरं होइ ? गोयमा! सम्वब'धतरं जहन्नेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई तिसमयूशाई, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमबमहियाई; देसबंधतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्रहणं समयाहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाई / [47 प्र. भगवन् ! एकेन्द्रियावस्थागत जीव (एकेन्द्रियत्व को छोड़ कर) नो-एकेन्द्रियावस्था (किसी दूसरी जाति) में रह कर पुनः एकेन्द्रियरूप (एकेन्द्रियजाति) में आए तो एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [47 उ.] गौतम ! (ऐसे जीव का) सर्वबन्धान्तर जघन्यतः तीन समय कम दो क्षुल्लक भवग्रहण काल और उत्कृष्टत: संख्यात वर्ष-अधिक दो हजार सागरोपम का होता है / 48. जीवस्स णं भंते ! पुढविकाइयत्ते नोपुढविकाइयत्ते पुणरवि पुढविकाइयत्ते पुढविकाइयएगिदियोरालियसरीरप्पयोगबंध तरं कालमो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! सब्वबधतरं जहन्नेणं दो खुड्डाई भवगहणाई तिसमयऊणाई; उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंता उस्सप्पिणी-प्रोसप्पिणीनो कालो, खेत्तनो प्रणेता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा प्रावलियाए असंखेज्जइमागो। देसबंधतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं अणंत कालं जाव प्रावलियाए असंखेज्जइभागो। [48 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक-अवस्थागत जीव नो-पृथ्वीकायिक-अवस्था में (पृथ्वीकाय को छोड़ कर अन्य किसी काय में) उत्पन्न हो (वहाँ रह) कर, पुनः पृथ्वीकायिकरूप (पृथ्वीकाय) में आए, तो पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [48 उ.] गौतम ! (ऐसे जीव का) सर्वबन्धान्तर जघन्यतः तीन समय कम दो क्षुल्लकभव अनन्त लोक, असंख्येय पुद्गल-परावर्तन हैं। वे पुद्गल-परावर्तन प्रावलिका के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। (अर्थात्-पावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गल परावर्तन हैं।) देशबन्ध का अन्तर जघन्यतः समयाधिक क्षुल्लकभव-ग्रहण काल और उत्कृष्टत: अनन्तकाल,......" यावत्-'श्रावलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण पुद्गल-परावर्तन है'; यहाँ तक जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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