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________________ व्याख्याप्रज्ञप्ति 193. बउसस्स० पुच्छा / गोयमा! जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं सहस्ससो। [163 प्र.] भगवन् ! बकुश के अनेक-भव-ग्रहण-सम्बन्धी प्राकर्ष कितने होते हैं ? [163 उ.] गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट सहस्रो (सहस्र-पृथक्त्व) पाकर्ष होते हैं / 194. एवं जाव कसायकुसीलस्स / [164] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक कहना चाहिए / 165. नियंठस्स पं० पुन्छा। गोयमा ! जहन्नेणं दोनि, उक्कोसेणं पंच / [165 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ के नाना-भव-सम्वन्धी कितने प्राकर्ष होते हैं ? [165 उ.] गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट पांच पाकर्ष होते हैं / 166. सिणायस्स० पुच्छा। गोयमा ! नस्थि एक्को वि। [दारं 28] / [196 प्र.] भगवन् ! स्नातक के अनेक-भव-सम्बन्धी आकर्ष कितने होते हैं ? [166 उ.] गौतम ! एक भी आकर्ष नहीं होता / [अट्ठाईसवाँ द्वार] विवेचन-एकभवीय और अनेकभवीय आकर्ष-आकर्ष यहाँ पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ है-चारित्र की प्राप्ति / प्रश्नों का प्राशय यह है कि पुलाकादि के एक भव या अनेक भवों में कितने आकर्ष होते हैं, अर्थात्-एक भव या अनेक भवों में पुलाक प्रादि संयम (चारित्र) कितनी बार आ सकता है ? पुलाक के जघन्य एक, उत्कृष्ट तीन आकर्ष कहे हैं, अर्थात् एक भव में पुलाकचारित्र तीन बार आ सकता है। बकुश के जघन्य एक और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं / निर्ग्रन्थ के एक भव में जघन्य एक आकर्ष और दो बार उपशमश्रेणी करने से उत्कृष्ट दो आकर्ष होते हैं / पुलाक के एक भव में एक और दूसरे भव में पुन: एक, इस प्रकार अनेक भवों में जघन्य दो आकर्ष होते हैं और उत्कृष्ट सात आकर्ष होते हैं। इनमें से एक भव में उत्कृष्ट तीन अाकर्ष होते हैं। प्रथम भव में एक प्राकर्ष और दूसरे दो भवों में तीन-तीन आकर्ष होते हैं / इत्यादि विकल्प से सात आकर्ष होते हैं। बकुशपन के उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं। इनमें से प्रत्येक भव में उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं। जबकि आठ भवों में से प्रत्येक भव में उत्कृष्ट नौ सौ-नौ सौ आकर्ष हों तो उनको आठगुणा करने पर 7200 आकर्ष होते हैं। इस प्रकार बकुश के अनेकभव की अपेक्षा सहस्त्र-पृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं। ___ निर्गन्थपन के उत्कृष्ट तीन भव होते हैं। उनमें से प्रथम भव में दो आकर्ष और दूसरे भव में दो और तीसरे भव में एक प्राकर्ष, यों पांच पाकर्ष होते हैं। क्षपक निर्गन्थपन का आकर्ष करके सिद्ध होता है। इस प्रकार अनेक भवों में निर्ग्रन्थपन के पांच पाकर्ष होते हैं। स्नातक तो उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं / इसलिए उनके अनेक भव और आकर्ष नहीं होते।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 905-906 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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