________________ छठा शतक : उद्देशक-५] कृष्णराजि के प्रश्नों में लगभग सादृश्य है, किन्तु उनके उत्तरों में तमस्कायसम्बन्धी उत्तरों से कहींकहीं अन्तर है। यथा-कृष्णराजियाँ 8 बताई गई हैं। इनके संस्थान में अन्तर है / इनका आयाम और परिक्षेप असंख्येय हजार योजन है, जबकि विष्कम्भ (चौड़ाई विस्तार) संख्येय हजार योजन है / ये तमस्काय से विशालता में कम हैं, किन्तु इनकी भयंकरता तमस्काय जितनी ही है। कृष्णराजियों में ग्रामादि या गहादि नहीं हैं। वहाँ बड़े-बड़े मेघ हैं, जिन्हें देव बनाते हैं, गर्जाते व बरसाते हैं। वहाँ विग्रहगतिसमापन्न बादर अप्काय, अग्निकाय और वनस्पतिकाय के सिवाय कोई बादर अप्काय, अग्निकाय या वनस्पतिकाय नहीं है। वहाँ न तो चन्द्रादि हैं, और न चन्द्र, सूर्य की प्रभा है। कृष्णराजियों का वर्ण तमस्काय के सदृश ही गाढ़ काला एवं अन्धकारपूर्ण है / कृष्णराजियों के 8 सार्थक नाम हैं। वास्तव में, ये कृष्णराजियाँ अप्काय के परिणामरूप नहीं हैं, किन्तु सचित्त और अचित्त पृथ्वी के परिणामरूप हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि ये जीव और पुद्गल, दोनों के विकाररूप हैं। बादर अप्काय, अग्निकाय और वनस्पतिकाय को छोड़कर अन्य सब जीव एक बार ही नहीं, अनेक बार और अनन्त बार कृष्णराजियों में उत्पन्न हो चुके हैं।' कृष्णराजियों के प्राठ नामों की व्याख्या-कृष्णराजि = काले वर्ण की पृथ्वी और पुदगलों के परिणामरूप होने से काले पुद्गलों की राजि = रेखा / मेघराजि= काले मेघ की रेखा के सदश / मधा छठी नरक के समान अन्धकार वाली / माघवती - सातवी नरक के समान माढान्धकार वाली। वातपरिघा = अांधी के समान सघन अन्धकार वाली और दुर्लध्य / वातपरिक्षोभा आंधी के समान अन्धकार वाली और क्षोभजनक / देवपरिघा=देवों के लिए दुलंघ्य / देवपरिक्षोभा=देवों के लिए क्षोभजनक / 2 लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमान, देव-स्वामी, परिवार, संस्थान, स्थिति, दूरी आदि का विचार ___32. एयासि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं असु प्रोवासंतरेसु अट्ठ लोगतिविमाणा पण्णता, तं जहा--प्रच्ची अच्चिमाली वइरोयणे पभंकरे चंदाभे सूराभे सुक्कामे सुपतिट्टाभे, मन्झे रिट्ठाभे। [32] इन (पूर्वोक्त) पाठ कृष्णराजियों के पाठ अवकाशान्तरों में आठ लोकान्तिक विमान हैं / यथा-(१) अचि, (2) अचिमाली, (3) वैरोचन, (4) प्रभंकर, (5) चन्द्राभ, (6) सूर्याभ, (7) शुक्राभ, और (8) सुप्रतिष्ठाभ / इन सबके मध्य में रिष्टाभ विमान है। 33. कहि गंमते! अच्ची विमाणे 50 ? गोयमा ! उत्तरपुरस्थिमेणं / 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि.) भाग 1, पृ. 251 से 253 (ख) भगवती अ. वृत्ति पत्रांक 271 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 271 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org