________________ चौबीसवां शतक : उदशक 20 1241 पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होनेवाले सौधर्म से सहलारदेव पर्यन्त के उत्पाद-परिमारणादि वोस द्वारों को प्ररूपणा 63. सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्त०, उक्कोसेणं पुवकोडिअाउएसु / सेसं जहेव पुढविकाइयउद्देसए नवसु वि गमएसु, नवरं * नवसु वि गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवागहणाई / ठिति कालादेसं च जाणेज्जा। [63 प्र. भगवन् ! सौधर्म देव जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले (सं. पं. तियंञ्चों) में उत्पन्न होता है ? [63 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि को स्थिति वाले (सं. पं. सिर्यञ्चों) में उत्पन्न होता है। शेष सब नौ ही गमकों से सम्बन्धित वक्तव्यता पृथ्वीकायिक-उद्देशक में कहे अनुसार जानना / परन्तु विशेष यह है कि नौ ही गमकों में (संवेध)-भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव होते हैं / स्थिति और कालादेश भी भिन्न-भिन्न समझना चाहिए। 64. एवं ईसाणदेवे वि। [64] इसी प्रकार ईशान देव के विषय में भी जानना चाहिए। 65. एवं एएणं कमेणं अवसेसा वि जाव सहस्सारदेवेसु उववातेयव्वा, नवरं प्रोगाहणा जहा प्रोगाहणसंठाणे / लेस्सा सणंकुमार-माहिद-बंभलोएसु एगा पम्हलेस्सा, सेसाणं एगा सुक्कलेस्सा। वेवे-नो इत्यिवेवगा, पुरिसवेदगा, नो नपुंसगवेदगा। आउ-अणुबंधा जहा ठितिपदे। सेसं जहेव ईसाणगाणं / कायसंवेहं च जाणेज्जा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // चउवीसहमे सए : बीसतिमो उद्देसनो समत्तो // 24-20 // [65] इसी क्रम से शेष सब देवों का-सहस्रारकल्प पर्यन्त के देवों का- उपपात कहना चाहिए। परन्तु अवगाहना, (प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें) अवगाहना-संस्थान-पद के अनुसार जानना / लेश्या (इस प्रकार है)-सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में एक पद्मलेश्या तथा लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार में एक शुक्ललेश्या होती है। वेद-ये स्त्रीवेद और नपुसकवेदी नहीं होते, केवल पुरुषवेदी होते हैं / (प्रज्ञापनासूत्र के चतुर्थ) स्थितिपद के अनुसार आयु (स्थिति) और अनुबन्ध जानना चाहिए। शेष सब ईशानदेव के समान कहना चाहिए। कायसंवेध भिन्न-भिन्न जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org